मेरी रामनामी
मुखड़े पर मन की उछाह छहराता, आँखों में विश्वास की फेरी फेरता और ह्रदय में
श्रद्धा-भक्ति के झोंके झकोरता लाखों का झमेला अयोध्या के सावन-झूले में झूम
रहा है। छोटी छावनी हो या बड़ी जगह, रामकोट हो या लक्ष्मणकिला, श्रृंगारहाट
हो या सरयूघाट लोगों की दर्शनाभिलाषा देखते ही बनती है। हनुमानगढ़ी प्रसाद
चढ़ाना हो या नागेश्वरनाथ जल, चाहे जन्मभूमि आस्था-द्रव अथवा छूँछे ही रमना हो-
भीड़ का ताँता सर्वत्र है। नर-नारी, बालक-वृद्ध, साधु-संन्यासी,
भिखारी-व्यापारी सब इस राममेले में रुचि-रुचि रमते विचर रहे हैं। राम ही इस
महा समागम के सम्यक विन्दु-विस्तार हैं; वही मुझे भी छेड़ रहे हैं और उन्हीं
की विन्दुता-विराटता में डूबता-उतराता यह सारा जनातिरेक भी ऊभ-चूभ हो रहा है-
अपने बहु आयाम-बहु आपाधापी के उपरान्त भी, अपनी बहु बाँही-बहु सोनजुही के साथ
भी।
किसी के संग जीती-जागती लक्ष्मी विहँस रही है, तो किसी के हाथ बढ़े कटोरे में
टके की लक्ष्मी खनक रही है और वह भिनभिनाती मखियाँ बटोरे, घिनौना परिवेश
सजाए, कातर किन्तु कृत्रिम पुकार में गिड़गिड़ा रहा है; सूखे-मरे आँसुओं में
बिलबिला रहा है। कोई घेंचा ताने, राग-तान-सन्नद्ध, गाने-बजाने में लीन है, तो
कोई मूड़ी उठाए, देखने-सुनने में तल्लीन। आला अफसर अधिकतर जीप-कार में ही झलकते
हैं। उतरते भी हैं, किन्तु सब जगह नहीं, जहाँ उनका वैभवी कैम्प है, रुपहली
सज्जा है। ये भारी भरकम खचाखच्च-ठेलपेल, जितनी कुछ है उतनी तो है ही, स्पीकरों
से लोगों के भूलने-खोने की सूचनाएँ, अभ्यास-पगे प्रवचनों की उर्जस्वित ध्वनियाँ
और टेप-रटे, भक्ति-भीने गीत-संगीत मेले को और अधिक मेला बनाते प्रतीत होते
हैं; जैसे अदृश्य सरगर्मी की फैलती परिधियाँ, जैसे रागमयी संस्कृति के श्रव्य
उन्मीलन, जैसे विश्व के, या छोटे-से विश्व के, या विश्व के सारभूत के कुछ
हुलसते-किलकते, कुछ दबते-बैठते, उड़ते कहकहे।
यह विष्णु-चक्र पर अवस्थित, वैकुण्ठलोक की अयोध्यानन्दिनी अयोध्या नहीं है, जो
कभी आदि प्रजापति के याचक हाथों, आदि संस्था की झँगुली पहने उतरी थी, उतारी गई
थी, भूतल पर आई थी। लोक-नियमन के प्रथम आयास में लोक-वरेण्या राजनगरी-सी
रचाई-बसाई गई थी। देवशिल्पी विश्वकर्मा की कलापटुता द्वारा निर्मित हुई थी। यह
परिमिति प्रीति-रीतिवाली रामकालिक सुहावनी अयोध्या भी नहीं है, जो सर्व
कल्याणी, सर्व चिन्मयी बताई जाती है। मुझे तो यह बहुत कुछ रुद्रयामलीय लगती है,
तुलसीकृत लगती है। क्रूर काल ने, कालकवलित जिजीविषा ने इसमें इतना बदलाव ला
दिया है कि बूढ़ा इतिहास इसे तरेर-तरेरकर देखता है; जैसे किसी अनजानी-अनपहचानी
को देखता हो। फिर भी, यह आज भी पुण्यपरायणी ही है, नरकनिर्मुक्ता ही है,
विघ्न-विनाशिनी ही है। यह कितनी र्रौंदी गई, मैली-कुचैली की गई, यह कितनी
सजाई-सँवारी गई, अपनी व्यथा, अपने हर्ष-विषाद का अनुबोध लिये यही जानती है, यही
जानेगी भी। पर कुछ-कुछ मैं भी समझ-बूझ गया हूँ, कुछ-कुछ मैं भी जानने लगा हूँ।
इस पुरिवरा, इस विमला के अन्तरंग-बहिरंग की सह्य-असह्य सुषमा-ऊष्मा, इसके अंचल
से खेलते सौन्दर्य-असौन्दर्य, खिलते-चुभते कोंपल-कंटक कोई आज नए का नहीं,
वर्षों से देख रहा हूँ।
निकला तो हूँ, आज भी इसकी शोभा-समृद्धि ही देखने, इसकी बरसाती रंगरलियाँ ही
निहारने, पर कैसे कहूँ कि निकृष्ट मनुष्यता की दुर्गन्ध यहाँ नहीं है, ऐहिक
अधमता की सँड़ाध यहाँ नहीं है। भीतर-भीतर रामभक्तों के गुप्त आचरण से,
चोटी-जनेऊ-तिलक-कण्ठी-छापा-जाप-चपरास आदि के छिपे छलावों से मंदिरों की
सूक्ष्मता इतनी अविश्वस्त है कि यदा-कदा रहस्य उघड़े अमानवीय परिदृश्य ह्रदय
चीर देते हैं; और बाहर-बाहर अवधवासियों के नैत्यिक व्यवहार से, दर्शनार्थियों
की अनगढ़ भीड़-भाड़ से गली कूँचों की स्थूलता इतनी गंदली है, इतनी घिनावनी है कि
कहीं-कहीं तो मन बहुत ही बिदक जाता है। छल-दंभ के, प्रपंच के, मोह-माया आदि
के सारे-के-सारे बहुरूपिए यहाँ भी चढ़ा-उपरी करते एकजुट हैं। दिन भर के
थके-माँदे संतप्त सूर्य की भाँति दौड़-धूप करते, भागते भौतिक मनुष्य को यहाँ आकर
संत्रास-त्राण की जितनी श्यामल, सुकोमल और शीतल छाया मिलनी चाहिए, उतनी का
अधिकांश तो जैसे है ही नहीं और जो कुछ है भी, वह भी अमल नहीं, वह भी विशुद्ध
नहीं।
वनजीवी, पर्वतजीवी मानवजातियों को हेय दृष्टि से देखने वाले, प्रकृति की ममता
से दूर होते हम चमक-धमक के नागरिकों की सुसंस्कृत जीवनचर्या और प्रशासन की
युद्ध-स्तर की कर्मशीलता कहीं-कहीं तो इतनी प्रतिफलित है कि साँस लेना भी दूभर
हो जाता है और आँखें मूँदना-खोलना भी! किन्तु ऐसी गलियों में साधारण जनता ही
घूमती नज़र आती है। बड़े लोग तो बड़े स्थानों, बड़े मन्दिरों में ही उतरते-देखते
हैं। अधिकतर सीधे-सादे ग्रामीण जन ही सभी छोटी-बड़ी सड़कों, गन्दी-साफ गलियों में
घूमते नहीं अघाते; क्योंकि उनके अवलोकन में सारी अयोध्या राममय जो है; उनकी
अज्ञानता में भले-बुरे का उतना भेद जो नहीं है! तभी तो इस मिट्टी में समोई
जयगाथा, इस दिग्-दिगन्त से आभासित तपश्चरित्र उन्हें उतने ही पवित्र, पारदर्शी
और सुवासित लगते है, जितने कि लगने ही चाहिए, जितने कि हमें नहीं लगते।
साँवली साँझ उतरने लगी है। साँवला सावन मनुहार कि आँखें झपकाने लगा है।
साकेत-सम्राज्ञी साँवले रघुवर के साथ मन्दिर-मन्दिर हिंडोले चढ़ी झूल रही हैं।
मैं अपने मन झूल रहा हूँ। सरयू-पुल पर खड़ा हूँ। कुछ दिख रहा है, कुछ देख
रहा हूँ। और नयन के डोरों में पिरो रहा हूँ--निसर्ग की तंद्रिल छवि-छटा को,
अयोध्या की पावन प्रभा को, उसके प्राणद प्राण को, उसकी सजलता-तरलता को, उसकी
सुसरिता को या दूसरी अयोध्या को। मन न जाने कैसा हो चला है! कहता है, जिसने
यहाँ की शुभ संध्या, यहाँ के प्रिय प्रभात का तदास्वाद न लिया, समझो अयोध्या
देखी ही नहीं। समय के निर्मम आवर्त में, सदैव के लिए, अयोध्या का बहुत कुछ सो
गया, बहुत कुछ मिट गया, बहुत कुछ सूख गया। परन्तु यह शेष स्रोतस्विनी अवध का
सर्वस्व निचोड़े, जो बीत गया उसे भी रसमोए, जो बीतेगा उसे भी सहने-भिगोने,
आत्मसात करने की साध लिए, दुबली-पतली कृशगात हो-होकर भी हर साश्रु-सुहेले सावन
में छलछला उठती है, हर भाव-भरे भादों में उमग आती है। आज तक बची है; आज भी
हरी-भरी है। बस यही सरयू, यही रामगंगा ही तो बची-खुची अयोध्या है। बस केवल इसी
ने ही तो मन-वचन से, कर्म से राम के सित-श्यामल स्वरूप को सहेजा है, सिरजा है।
बस यही तो है, जो निष्ठुर परिवर्तन की निरंतर मार खाती हुई आज भी राम की
सर्वात्मार्द्र निस्पृह दृष्टि से अनुरक्त है, संसिक्त है। श्री सरयू मुख से ही
निकला यह प्रकथन-
"विष्णुनेत्रसमुत्पन्ना रामं कुक्षौ विभम्यर्यहम्।"
(रुद्र्यामालतंत्र,अयोध्याखण्ड
, 3/63)
कि मैं श्री विष्णु के नेत्र से उत्पन्न हुई हूँ और श्री राम को कुक्षि में
धारण किए रहती हूँ-- स्मरण होते ही सुदूर, विह्वल आकाश में डबडबाते
भगवन्नेत्र उभर आते हैं तथा सरयू के समुज्ज्वल अंचल में नील सरोरुह राम की
श्यामता उतराने लगती है। उस रामचन्द्र में, उस लोलते-हिल्लोलते चन्द्र में मन
भिंच-भिंच जाता है, तर-बतर हो जाता है, नील-नील हो जाता है।
नदी के उत्तरी कूल की ओर दूर-दूर तक फैली वर्षाकालीन हरीतिमा, जो कहीं-कहीं
झाउओं के पुष्पित-से कत्थई अलंकरण से लदी है, जो कुछ ही सप्ताह में, भाद्रपद के
उतरते-उतरते, काँस के फूलों से अपने बुढ़ापे की केशांचित श्वेत सौम्यता प्रकट
करने लगेगी; दिक्सुन्दरी संध्या के आँचल में मुख छिपाते दिवाश्रांत सूर्य के
पीले-ललौहें, रतिमुद्रित लावण्य को देख, आलक्तक हो रही हिलोरों की सलज्ज
पदावली, जो किसी के बुला रहे, अभिमंत्रित अगाध अभिसार में तिरती-थिरकती, भागी
चली जा रही है; और घाट के मन्दिरों का सघन विविघुत-प्रकाश, जो दक्षिण-कूल की
जल-राशि में बिंबित-रेखित अच्छाभ-सा झिलमिला रहा है--निहारते रहने से स्वयं की
बोझिल सत्ता हल्की, शून्य-सी होने लगती है। इसी साल गर्मियों की किसी साँझ, इसी
सरयू-सेतु से मुझे दीपदान की लम्बी-बिरंगी, अविस्मरणीय कतार दिखी थी, पर आज
नहीं है। बुझ तो वह उसी दिन गई थी, मेरे देखते-देखते ही; परन्तु उसे भूल नहीं
पाया हूँ। वह तैरती शुचि, सुदीप्त सरणि, वह जल-करतल की गतिमयी घुतिमाला, आज भी
मेरी अन्तस्सलिला में उसी तरह, उसी अभिरामता की श्री-साधे, प्रज्वलित है।
किन्तु जानता हूँ, एक दिन वह भी बुझेगी, एक दिन उसके ज्योति-प्रयाण का भी अंत
होगा, मेरी लौ-लहर के साथ, निस्सारता के अनंतरित सत्य में, महासत्य में या अपनी
सिद्धि में।
सांध्य वेला में भी कुछ लोग डुबकी लगा रहे हैं। स्नान का आनंद ले रहे हैं। एक
मैं हूँ, मेरे इर्द-गिर्द भी हैं, ऐसे ही और बहुत से हैं, जो उन्हें नहाते देख,
दूर खड़े अनभीगे ही आनन्दित हैं। किन्तु उनके दरस-परस के गोते, उनके नमन-निमज्जन
की निकटता पारलौकिक न सही, लौकिक ही सही, हमसे अधिक सफल है, हमसे अधिक पूर्ण
है। कोई भोली-भाली जान पड़ती नारी अंजलि में तरल तरंगे यत्न से लोढ़ती है, यत्न
से माथे चढ़ाती है, फिर नहाती आमोदमग्न होती है; और वहीं पूसी चाँदनी-सी लगती
कुछ अधुनातन युवतियाँ, जो अपावन जल में नहाना तो दूर प्रसाधनलिप्त मुख भी
पखारें तो कैसे पखारें, उसकी निर्मल सहजता का उपहास-सा करती उचकती हैं! जिसे
वे निम्नतर समझ रही हैं, क्या उसके इस प्रकार ज्ञात-अज्ञात सौन्दर्य के प्रति
प्रणमन में, प्रकृति से उसके ऐसे लिपटने-भेंटने में नारी-सुलभ सात्विक
उद्भावना व्यक्त नहीं होती! या उनके भारी लिबास ने, अर्जित स्वच्छन्दता ने,
चिकने मेक-अप ने उनके ही बिन सिंगारे सिंगारवाले नारी-निखार को दबोच नहीं लिया
है! किसी माने में उससे भी निम्नतर नहीं बना दिया है! उनके अभिनव के ऐसे अहं
को, ऐसे नवीन संस्कार को वास्तविक शांति का छोर छूटने की त्रासदी कहूँ, उनकी
ऐसी नवागत प्रतिक्रिया को नई नारी का प्रमाद कहूँ तो क्या बेजा है!
तट पर पण्डों के अपने-अपने घाट, अपने-अपने झण्डे, सिग्नल या साइनबोर्ड बहुत
हैंI कुछ दाल, कुछ चावल मिले, हल्के सतनजा के पिसान भरे बोरे, द्रुत-अशुद्ध
मंत्रोच्चारण, कोई खेद रहा है पंडिज्जी को! पर इतने कुछ से ही जब इतना सब
मिलता है, तो कर्मकाण्ड की निष्ठा कैसी! पूँछ पकड़े किसी और से हँसते-बतियाते
यजमान महाशय ही कहाँ स्थिरचित्त हैं! चक्कर केवल परलोक सुधारने की औपचरिकता भर
का है। थोड़ी देर में ही कई को वैतरणी का आश्वासन देने वाली दुबली-मल्लही बछिया
उदास है। पता नहीं क्या सोचे जा रही है! उसका पिचका पेट रुपये-पैसे का थैला
भरते पण्डे-पुजारियों के तुंदिल उदरों से स्पर्धा नहीं कर पाता। लगता है, उसका
इस श्रावण-मास से, इस सरयू-तीर से, इस दान-पुण्य से कोई हार्दिक अनुबंध नहीं
है। उसका गलफंद, उसकी पगही उसके कटु यथार्थ का ही, उसकी भाग्यहीन विवशता का ही
प्रतीक है, जो इतना निर्दय हो गया है कि उसके दुःख का हिस्सा छोड़, उसके सुख की
साझेदारी ही बँटा रहा है। कल आधी रात से भी ऊपर का समय रहा होगा, इन्हीं घाटों
के उस पूर्वी सिरे की ओर किसी की प्रशम-प्रगाढ़ निद्रा आलोकित हो रही थी। बसेरे
के रौरव-कलरव बीच पता नहीं क्या ले-देकर, किसी पंचभूत पिंजड़े का पंछी उड़ गया
था। ठाट की सूनी ठटरी सरयू का सानिध्य पाकर भी, उसके शीतल समीरण में भी
मान-वियोग के दाह में जली जा रही है। एक अजीब-सी नीरव पीड़ा मेरे अन्तस्तल की
गहराई नापने लगी। वह क्षण-दो-क्षण में ही अपना काम कर गई। फिर मुझे लगा, उस
अकेली चिता की उन्मुख, उदग्र, लपलपाती लपटें अपने प्रियजन-परिजन को, विकट
श्मशान को, उसकी अंधवर्ती निशीथिनी को और जैसे मुझको भी किसी चरम, सुर्ख सत्य
की झलक दिखा रही हैं। मृण्मय संसार की वह अंतिम पावक-वेदिका, नश्वरता की वह
अंतिम अग्निशिखा वैराग्य संदीपिनी-सी जैसे कुछ कह रही थी-- कुछ सुनने-गुनने
लायक बातें, कुछ रहस्य के तथ्य, कुछ जीवनगत मूलमंत्र। पर उनींदी आँखें गन्तव्य
की ओर बढ़ती रहीं, हम रुके नहीं, सब कुछ अनबूझ पहेली समझ अपनी राह चलते चले गए;
उस फक्कड़ अपरिचित बटोही की तरह, जो लाख हाँक लगाने, गोहराने पर भी नहीं लौटता,
नहीं सुनता।
मन्दिरों-मूर्तियों के निर्दशन में ऐसी कलाकृतियों की अधिकता खटक जाती है, जो
या तो बे-मन से गढ़ी गई हैं या आवश्यकता से अधिक बनाव-ठनाववाली हैं। हाल ही के
वर्षों में बना 'श्रीमद् वाल्मीकि रामायण भवन' इस धार्मिक नगरी की
स्थापत्य-परम्परा में नवीनतम उत्कृष्ट संयोग है। इसमें रामायण के सातों काण्ड
उत्कीर्ण हैं। स्पष्टतः पढ़े जा सकते हैं। संदर्भ-चित्रों एवं ललित रंगाभरणों
से सुसज्जित इस विशाल मन्दिर के पश्च भाग में श्वेत-स्निग्ध प्रतिमाओं के रूप
में अपने ऋषिगुरु वाल्मीकि के साथ सजीव-से खड़े किसलय-वय धनुर्धर लव-कुश आँखों
के तारे ही लगते हैं। जितना ही देखिए, उतना ही देखने का मन होता है। 'मानस
ट्रस्ट भवन' में राम, सीता और लक्ष्मण की स्मित-मुद्राएँ काव्यों में वर्णित
उनके लोकोत्तर सौन्दर्य का विश्वास दिलाती हैं। 'अमावाँ राजमन्दिर' में पाषाण
की कठोरता में सुयसी सिया सहित चारों भैया के नाक-नक्श सुघर, शीतल चन्द्र के
समान अप्रितम हो गए हैं। ऐसी ही प्यारी मूर्ति राधा-माधव की भी इसी मन्दिर में
है। मुरली मुरलीधर के अधरों पर है, किन्तु उसके स्वर-विवरवाले भाग पर कन्हइया
जू की अँगुलियाँ ही नहीं, उनकी अंक-लगी पार्श्ववर्तिनी प्रिया की दोनों हाथों
की अँगुलियाँ भी हैं। क्यों न हों, उनके उच्छलित ह्रदय से फूटता वंशीगत
स्वर-संभार राधा जू के सरगम-साहाय्य से ही तो सुमधुर होता है! कनक भवन की शबरी
आज भी भृकुटी पर हथेली टिकाए, प्रभुदर्शन की साध में ताकती खड़ी
है-एकाग्रचित्त-सी प्रेमयोग की मधुमती भूमिका में, जैसे कोई निश्चलव्रता
प्राण-पाहुन का बाट जोह रही हो।
जैन मन्दिर में बत्तीस फुट की बड़ी मूर्ति, जो खड़ी मुद्रा में है, पूर्णतः नग्न
है। जिसे अशिक्षित जन भगवान बुद्ध की समझते हैं और अर्धशिक्षित लोग महावीर की
बताते हैं। परन्तु है वह प्रथम तीर्थंकर ऋषभदेव की, आदिनाथ की। इसका उल्लेख
मन्दिर के प्रवेश-द्वार पर ही मिल जाता है। वैसे तो इस मन्दिर में अन्य
तीर्थंकरों की दिगम्बर मूर्तियाँ भी हैं, किन्तु वे मुख्य मूर्ति की तुलना
में इतनी छोटी हैं कि सामान्य दर्शन-दृष्टि में गौण हो जाती हैं। यहाँ
मूर्तियों की स्थूल नग्नता-दिगम्बरता जितेन्द्रिय वर्धमान की चरम उपलब्धि का
प्रचार ही है, जिसे देखकर प्रायः औरतें अधिक हँसती-मुस्कराती हैं। यह मुझे
नग्नता का सामाजिक प्रत्युत्तर समझ में आता है। शारीरिक-मानसिक विचलन का
अनुभाव जान पड़ता है। कहा जा सकता है, तो फिर दर्शकों के पाँच-सात वर्षीय बच्चे
क्यों हँसते-ठठाते हैं! मैं कहूँगा, यह समाज का सीखता-पलता बचकाना संस्कार
है, सामाजिक अनुकरण है। कहते हैं, कठोर तप करते हुए महावीर स्वामी एक वर्ष और
एक मास तक एक ही वस्त्र धारण किए रहे। उसके जीर्ण-शीर्ण होकर गिर जाने पर, वे
नग्न होकर ही मग्न रहते, तपस्या करते तथा नग्न ही विचरते। बालकों आदि के
झुण्ड उनके पीछे दौड़ते-चिढ़ाते, हल्ला मचाते, लोग मारते-पीटते भी, परन्तु वे
मौन ही रहते, शांत ही रहते। और सर्वथा निर्बाध-निर्बंध, सर्वथा
निराश्रय-निर्लिप्त, सर्वथा शुद्ध, सर्वथा एकाकी एवं स्वतन्त्र जीवन ही बिताते।
फिर वर्षों की कठिन तपश्चर्या के उपरान्त एक दिन ऐसा भी आया कि वे समस्त
रागद्वेषादि मनोविकारों पर विजय प्राप्त करने में सफल हो गए। उनकी अन्त: और
बाह्य दोनों दृष्टियाँ परिपूर्ण हो गईं, परिशुद्ध हो गईं। आज उन्हीं जिनों की
मूर्तित दिगम्बरता का, उनके नैसर्गिक व्यसन-वसन का सब मखौल करते हैं, ठिठोली
उड़ाते हैं। याद करने लगता हूँ, रूसो की उस प्राकृतिक तद्रूप इच्छा को, जो सुखी
होने की ललक में फिर से अज्ञान, भोलेपन और निर्धनता की याचना करती है। याद करने
लगता हूँ, आदिम जातीय नग्न स्त्री-पुरुषों के उस चित्र को, जिसे पोर्टब्लेयर से
लौटे मेरे एक सहपाठी ने अपने ही कैमरे का खींचा बताकर दिखाया था। वहाँ
अध्यापक-पद के लिए साक्षात्कार में गए थे। बताते थे, प्रकृति की खुली गोद में
रहने वाले ये नग्न नर-नारी आदम-हव्वा-जैसे निष्कलुष ही होते हैं। कुछ
अच्छाइयाँ तो इनमें इतनी ऊँची होती हैं, जो हम भव्यता-भोगियों के हाथ ही नहीं
आतीं, जिन्हें हम छू भी नहीं सकते।
तुलसी-उद्यान में एक हाथ खण्डित हो जाने से पुरानी, सीधी आदमकद मूर्ति की जगह
प्रतिस्थापित तुलसी की नई अ-तुलसी-मूर्ति, जो आसनबद्ध है, दूर से तो वाल्मीकि
की मूर्ति-सी लगती है, किन्तु निकट जाने पर न तुलसी की, न वाल्मीकि की। गांधी
जी ने, ऐसा नहीं कि कभी ठाट-बाट के कपड़े न पहने हों, जूता-जुर्राब न चढ़ाए हों।
किन्तु जो गांधी हमारे चित्त में बार-बार चित्रित होते हैं, वे अन्य गांधी
नहीं, मात्र धोती पहने, अधनंगे, अस्थि-पिंजर-से, लकुटी टेकते चलते महात्मा
गांधी ही होते हैं। ऐसे ही हमारे ह्रदय में कोई और तुलसी नहीं, गोस्वामी
तुलसीदास ही दृढ़ होने चाहिए, जो मानस-जैसे काव्यरत्नाकर और विनयपत्रिका-जैसी
कवितामंदाकिनी की रचना कर चुके हों। जो भक्ति के, जो शब्द के, जो लोक-मांगल्य
के ऊर्ध्व साधन में यथेष्ठत: ऊपर उठ चुके हों। रामनाम की पूरी 'परतीति' सजोए,
दाढ़ी-मूँछ मुण्डित, सिर-मुण्डित भद्रता--
"तुलसी की बाजी राखी राम ही के नाम,न
तु
भेंट पितरन को न मुड़हू में बारु है। "
(कवितावली, 7/67)
कि मुझ तुलसी की हार-जीत का दाँव रामनाम ने ही लगा रक्खा है, नहीं तो मेरे पास
पितरों को भेंट चढ़ाने के लिए सिर पर बाल भी नहीं है-जिनकी प्रौढ़-वृद्ध अवस्था
को रुचने-फबने लगी हो। इस दाढ़ी-बालवाली, इस जटा-जूटवाली मूर्ति में गोस्वामी जी
के व्यक्तित्व का संभ्रम देख रहा हूँ या मेरी दृष्टि में ही दोष है, किससे
कहूँ, कैसे कहूँ!
कभी भावभरित सीता की क्रीड़ा-लालसा और महाबाहु राम की आज्ञा से खगश्रेष्ठ गरुण
ने एक मनोहर मणिमय पर्वत लाकर, विद्याकुण्ड के समीप पश्चिम दिशा में स्थापित
किया था। अपने विश्रुत मणियुक्त रूप में तो वह रह नहीं गया, पर उसकी ऊँचाई से
रघुवीरपुरी का दर्शन और ही आनंद देता है--एक-साथ, एक ही दृष्टि में, सर्वांग
समेटता हुआ। समष्टि रूप से पतली-सी सरयू, उसका उत्तरवर्ती तट-प्रांतर और सुदूर
दिखती वनस्पतियों, ग्राम्य बस्तियों का धुँधला आभास, नदी के दोनों किनारे गड़े
बिजली के विशाल खम्भे, छोटे-बड़े मन्दिर, घर-बार और बीच-बीच के पेड़-पौधे सब एक
सुखद दृश्य-संकरी की रचना करते हैं। निश्चित ही सूर्योदय और सूर्यास्त के समय
ये दुगुना नेत्र-लाभ देते होंगे। सुना हूँ, हनुमानगढ़ी के ऊपरी छत से भी ऐसा
ही दिखाई देता है। पर वह नगर के लगभग बीच में स्थित है; इसलिए दृश्य-चित्र
चतुर्दिक और कुछ दूसरे ढंग का ही बनता होगा। जबकि मणिपर्वत शहर से कुछ
अलग-थलग ही पड़ता है।
प्रतिवर्ष का यह रामझूला मणिपर्वत से ही आरम्भ होता है। श्रावण सुदी की
मधुश्रवा तृतीया, जिसे अवधवासी जानकी-तीज के रूप में जानते-मानते हैं, को
विभिन्न मन्दिरों की रामपालकियाँ वहाँ उतरती हैं। मूर्तियों के रूप में या
सजे-सजाए किशोरों के रूप में अनेक राम-जानकी-युगल अनेक झूलों में झूलते हैं,
झुलाए जाते हैं। किन्तु वे झूले वहीं समाप्त हो जाते हैं और पालकियाँ यथास्थान
लौट आती हैं। फिर उसी दिन से, उसी मंगल-विधायक युगल को, उसी युगल के
रूप-स्वरुप को झुलाने-मल्हारने के लिए धूम-धाम के साथ आती हैं, शेष
विभावरियाँ, जो एक पखवारे से नाच-गा रहीं हैं, अनिद्र रजनियाँ, जो आज विदा हो
रहीं हैं; सलोनी-सजीली झिलमिलाती झाँकियाँ, जो कल नहीं रहेंगी, जो आज बहुत सजी
हैं। आज की यह पूनम तो उस पीहर जाती नववधू-सी चितवन-राग जगा रही है, जिसके
वंकिम नयन-बान से ह्रदय-उदधि आंदोलित हो उठता है, जिसके सूक्ष्म नेत्र-संकेत
किसी चोखी-मूक गाँस की करोदती हूक छोड़ जाते हैं। तबलों के मसृण ठेके,
घुँघरूओं की क्षिप्र छमक, लीलाओं के रसमत्त मंचन, भाव-भजन के रसोद्रेक,
रामनाम-रटन के आरोह-अवरोह आज सब अति के तान पर हैं। कई शत वर्ष बीते, भले ही
दीपमालिकाओं का स्थान विद्दुत्मालाओं ने ले लिया है, पर समूची अयोध्या का
चित्रबिंब बहुत कुछ गीतावली-सा ही है। राजसदन के सामने वाले मैदान में गड़ा
ऊँचा चर्खी झूला देख, यह दृश्य--
"झुण्ड-झुण्ड झूलन चलीं,गजगामिन
वर नारि।
कुसुंभि चीर तनु सोहहीं,भूषन बिबिध
अपार। I"
(गीतावली , 7/19/4)
साकार हो उठता है। चढ़ती-उतरती, झूलती नव नारियों को, उनके हिंडोल-चक्र को, वह
भी इस राम-धाम में भक्त कवि को बिसारकर मैं नहीं देखता, देख ही नहीं पाता।
पर किसी भी मन्दिर में, मैं जैसे ही रामझाँकी से, रामहिंडोले से, उसके
झूलन-दोलन से, राम-सीता के ऐसे सुख-समाज से, ऐसी मधुरोपासना से और ऐसे
वैभव-विलास से साक्षात होता हूँ, मेरी कल्पना से सारी यथावत् चित्रावली धूल-धूल
हो जाती है। तब मुझे एक ओर अशोक-वन की विरह-व्यथित-तन्वी, क्षरित-मेघ-नयनी,
मलिन मुखी, खिन्न सीता की सुधि आती है और दूसरी ओर वन-वन भटकते, लता-विटप से,
खग-मृग से, भ्रमर-निकर से खोई जानकी का अता-पता पूछ्ते, रह-रहकर बिलखते अधीर
राम की या फिर उस निरीह, निर्वासित, आपद्सत्वा वैदेही की, जो घोर-घनान्ध विपिन
में निस्सहाय, अकेली, सिसकती विलप रही हों और उस श्लथ-शुष्क-तन,
स्थिर-सुदूर-नयन, विकल मन, मौन बैठे यज्ञरत कौशलेय की, जिनके वाम भाग में कोई
दूसरी परिणीता नहीं, स्वर्ण-प्रतिमूर्ति- सीता ही स्थान पाती हों। जन्मभूमि से
लेकर गुप्तारघाट तक के बस यही आर्द्र चरित्र मेरी स्मृति में बार-बार आने लगते
हैं। आ-आकर आँखों के सामने उमड़ने-घुमड़ने लगते हैं, चित्त में पैठने-समाने लगते
हैं। तब सावन मेले की सारी चहक-चमक फीकी लगने लगती है। मन उचटकर एकांत चाहने
लगता है। भीड़ काटने लगती है। और बने-ठने मठाधीशों की, रामनामी ओढ़े रामभक्तों
की विभवशालिनी मुस्कराहट जहर-सी लगती है, मुझे फाड़ खाती है।
तब मैं राम के, सीता के, लक्ष्मण के, उनके वेदना-विह्वल क्षणों के, उनकी
व्यथा-विक्षत गाथा के और अधिक सन्निकट हो जाता हूँ। उनकी पीड़ा, उनकी पीड़ायुक्त
अंतर्भुक्ति, उनके आँसू ही भोगना चाहता हूँ, उनके सुख, उनके सुख-निनाद नहीं,
उनके वियोग, उनके वन, उनके वनवास को ही, उनके संताप को ही। तब मेरी रामनामी,
मेरी हृद-रामनामी, मेरे अन्तस् की पीड़ा-पिछौरी और अधिक सत्व-संपुष्ट, और अधिक
तंतु-संहृत, और अधिक रंगीन हो जाती है। और मैं और अधिक करुण हो जाता हूँ।
भरतहि होइ न राजमदु
कल दशहरा था और आज भरत-मिलाप है। उस भरत का राम से मिलन जो राम का वनवास सुनकर
पिता की मृत्यु क्षण भर के लिए ही सही भूल-से गए-
"भरतहि बिसरेहु पितु मरन, सुनत राम वन गौनु।"
वह भरत जो माताओं, मंत्री तथा गुरु किसी का भी कहना नहीं मानते और राम से
मिलने चित्रकूट चल देते हैं-- उनकी मनुहार करने, उन्हें अयोध्या लौटाने। जब वे
नहीं लौटते तो उनकी कृपा से प्राप्त चरण-पादुका अयोध्या के सिंहासन पर स्थापित
करते हैं। नित्य प्रति पादुकाओं का चौदह वर्षों तक पूजन करते हैं। चम्प्पा के
बाग में भ्रमर की भाँति अयोध्या के सारे सुखों को त्याग देते हैं। वे
नंदिग्राम में पर्णकुटी बनाकर रहते हैं; सिर पर जटाजूट, शरीर पर वल्कल धारण
करते हैं तथा भूमि पर कुश की आसनी बिछा कर परम त्यागी का जीवन व्यतीत करते
हैं।
भरत ने चौदह वर्षों तक भोजन, वस्त्र, बर्तन, व्रत, नियम आदि को ऋषियों की तरह
कठोरता के साथ अपनाया। उन्होंने राजा राम की धरोहर के रूप में प्रजा की सेवा
की। कितना विलक्षण उदाहरण है कि जिस सिंहासन के लिए कैकेयी ने राम को वन भिजवा
दिया, उस सिंहासन पर भरत कभी बैठे नहीं, निर्बाध निकट रहकर भी नहीं। गुरु,
माता, मंत्री, प्रजा यहाँ तक कि स्वयं उन रघुपति राघव के समझाने-बुझाने पर भी
नहीं, जिनका कि राज्याभिषेक ही नहीं हो पाया है; अभी वे राजा ही नहीं हुए हैं।
राम तथा भरत का मिलाप संसार की अनूठी घटना है। इस घटना के निहितार्थ में
विश्व-वन्धुत्व का वह पवित्रतम निर्मल भाव निहित है, जिसमें कि सम्पूर्ण
मानव-जाति को एक जुट करने का सामाजिक सौहार्द समाहित हो गया है। और उस
सौहार्द का आधार है त्याग, अपने हिस्से का त्याग, अपने अतिरिक्त हिस्से का
त्याग, दूसरों के प्राप्य का त्याग। त्याग उस भाग का, जो भले ही कितना ही अपना
क्यों न हो, परन्तु औरों के लिए अपने से अधिक की आवश्यकता में त्याज्य हो।
त्याग उस थाती का भी जिसे प्रकृति ने बाँटा तों नहीं, किन्तु हमें बलात्
हथियाना पड़े तो त्याग, हिंसा का सहारा लेना पड़े तो त्याग, धरती को रौंदना पड़े
तो त्याग। त्याग उस भोग का जो अभद्र, अनावश्यक और अनुचित है, निकृष्ट है।
अपनत्व बस उस भर का, उतने भर का, जो ईश का दान है, परम सत्ता द्वारा सत्कर्मों
के प्रतिफल में हमें प्रदान किया गया है तथा जिसके भोग-उपभोग से धन-धर्म, जीवन
सब-के-सब धन्य होते हों, सब-के-सब कल्याण-भाव से ललित मुद्रा में छविमान हो
उठते हों।
वही त्याग भरत ने किया, वही राम ने किया और जो उन दोनों ने किया, वही हमें भी
करना चाहिए-- अपने लिए, अपने इर्द-गिर्द के समाज के लिए, अपने देश के लिए और
समस्त विश्व के कल्याण लिए। गोस्वामी जी विनय करते हैं-
"प्रसन्नतां या न गताभिषेकतस्तथा न मम्ले वनवास दु:खत:।
मुखाम्बुजश्री रघुनन्दनस्य मे सदास्तु सामञ्जुलमङ्गलप्रदा।"
अर्थात् राम की वह मुखकमल-छवि मेरे लिए सदैव मंगलदायिनी हो, जो न तो
राज्याभिषेक के सुखद और न ही वनवास के दुखद समाचार से प्रसन्न या मलिन हुई।
तनिक-सी तथा क्षणभंगुर खुशी में फूलकर कुप्पा हो जाना और हलके-से विपरीत झोंके
में टूट जाना, ऊपर से अपने मानसिक भूचाल से आस-पास का जीवन तहस-नहस करना न तो
राम को और न ही भरत को गवारा है। भरत भाई भी धर्म की धुरी उतने ही धैर्य से
धारण करते हैं, जितने धैर्य से राम। इसलिए दोनों ही भाई-चारे और सौहार्द के
अनोखे प्रतीक हैं।
जैसे-जैसे नवरात्रि के दिनों में रामलीलाएँ और शक्ति-पूजा बाह्याडम्बर,
प्रदर्शन और चौंधियाने वाली रोशनी में तब्दील होते गए, वैसे-वैसे राम और भरत
हमारे जीवन से दूर होते गए, शक्ति की आराधना दिखावटी होती गई।
आध्यात्मिकता-नैतिकता कमजोर पड़ने लगी और समाज पर लोभ, झूठ, फरेब, अनाचार,
अहंकार, कुसंस्कार, भोग-विकृति, वैमनस्य, तीव्र भौतिकता आदि का दुष्प्रभाव
बढ़ता चला गया। ऐसे में राम और भरत की याद आती है- घटना गाँव की है, किसी का
लोटा गायब हो गया, फूल का था। घर के बुजुर्ग को पता लग गया कि फलाँ के यहाँ वह
लोटा है। मन को रोक न पाए और चलकर उस दरवाजे पहुँचे तथा सकुचाते हुए पूछ बैठे
कि ज़रा देखिए वो लोटा खेलते-खालते 'छोटुआ' तो नहीं ले आया है। बस देर नहीं
लगी, घर के कई लोग इकट्ठा होकर बुजुर्ग का पानी उतारने पर तुल गए- तुम चोर,
तुम्हारे बाप-दादे चोर, तुम्हारे बाल-बच्चे चोर आदि-आदि। फिर बुजुर्ग के घर
वालों को जैसे ही कहा-सुनी का पता चला, वे भी कहाँ पीछे रहते, टूट पड़े और
हंगामा खड़ा हो गया। अपशब्दों तथा आरोपों-प्रत्यारोपों के बीच लोटे की बात ही
गायब हो गई। कुछ वैसा ही हाल आज-कल हमारे देश के लोकतंत्र और राजनीति का है।
राम-भरत फिर याद आते हैं- संसद और विधानसभाओं के पक्ष-विपक्ष के तांडव में
जनहित गधे की सींग हो गया है। सुधार-संस्कार के लिए यदि कोई अन्ना हजारे-जैसा
राष्ट्रीय नागरिक, राष्ट्रभ्राता, जिसके आगे एक बार ही सही समूची संसद विनत हुई
हो, कुछ बोले भी तो राजनीतिक दलों से कुछ लोग मुँह नोचने दौड़ पड़ते हैं। इतना
कीचड़ उछालते हैं, इतनी धूल उड़ाते हैं, इतनी चालें चलते हैं कि गर्द-गुबार और
गडमगड्ड में यथार्थ का पता ही न चल पाए और जो दिखाई दे वह मात्र ऊपर की
कलई-ही-कलई हो।
राम और भरत की याद तब और अधिक आती है, जब कश्मीर के पंडितों को अघोषित समय का
निर्वासन झेलना पड़ रहा है। पंजाब वर्षों तक राम और भरत की याद दिलाता रहा।
मंदिर-मस्ज़िद का भावनात्मक विद्रूप दशकों से देश का पीछा नहीं छोड़ रहा है।
इधर बोडो के जत्थे-के-जत्थे अपना घर-गृहस्थी छोड़ने को विवश हुए। अभी हाल में
सोशल साईट नेटवर्किंग पर ऐसी जबरदस्त हाँक चली कि मुम्बई, लखनऊ, इलाहाबाद आदि
शहरों की सड़कों पर हज़ारों-हज़ार की जनसंख्या हिंसक आक्रोश के साथ उतर आई। कहते
हैं- "हिन्दू, मुस्लिम, सिक्ख, ईसाई आपस में सब भाई-भाई", तब राम-भरत की
निराली भेंट हमारे मानस में कौंध-सी जाती है। तब भी जब "भारत-चीनी भाई-भाई" का
नारा हमारे देश में अवतरित हुआ था। और तब भी जब विभिन्न देशों के शीर्षस्थ
नेता और राजनयिक मिलते हैं, मीडिया प्रचार-तंत्र तेज़ कर देता है और बड़े-बड़े
समझौते व बड़ी-बड़ी घोषणाएँ होती हैं। काटने-बाँटने के नानाविध छल-छद्म कितनी ही
चालें चलते रहे, राम और भरत, जिन्हें भी दो भिन्न माँओं की भिन्न नालों ने
जन्म दिया और जिनके भाई-चारे बीच वह सब आया, जो हमें अलग-थलग करता रहा है-
धन-धर्म, राज-काज, सत्ता-विकार आदि सबकुछ, किन्तु वे अपने हृदयबल से सत्ता पर
ही नहीं, उसकी विकृतियों पर भी भ्रातृत्व को आदर-स्नेह के साथ प्रतिष्ठापित कर
गए।
आज एक बार फिर भरत-मिलाप का पर्व है और एक बार फिर राम-भरत की याद आई है। हर
साल आती है और आती रहेगी, किन्तु कब भाई-भाई का झगड़ा ख़त्म होगा। आखिर कब भारत
सच्चे अर्थों में भरत-मिलाप का ईदगाह बनेगा और दूसरों को भी प्रेरित करेगा।
सारा चक्कर धन-दौलत के मद और अहंकार की मदिरा का है। उसे त्यागे बिना रावण के
कितने ही पुतले दहन किए जाएँ, कितने ही सालों तक दहन करते जाएँ, बुराई नहीं
मिटेगी और राम और भरत भी हमारे ह्रदय की ओर उन्मुख नहीं होंगे। भरत-मिलाप तो
भारत के जनमन को यही सीख देता है कि धन-दौलत, अहंकार और विद्वेष के नशे के साथ
कोई भी भाई, भाई को हृदयपूर्वक गले नहीं लगा सकता; तभी तो रामकथा से,
भरत-मिलाप की आधार भावभूमि से ये पंक्तियाँ गूँज उठती है कि ब्रह्मा, विष्णु और
महेश का पद पाकर भी भरत को राजमद नहीं हो सकता-
"भरतहि होइ न राजमदु बिधि हरिहर पद पाइ।"
सोम सलिल की सरिता
रघुकुल-भूषण, मर्यादा-पुरुषोत्तम, विष्णुवत् राम एवं जनकनन्दिनी लक्ष्मीवत्
जानकी की पावन गाथा का गान कर, उनके यश रूपी अमृत का पान करनेवाले महाकवि
तुलसी हिन्दी काव्यगगन के राकाशशि हैं। उनकी शीतल चाँदनी से किरणें इस प्रकार
फैलती हैं कि मानव-जीवन का आलोक राम-काव्य के प्रकाश-पुंजों से भर जाता है।
राम के चरित्र की उषा-मंजरी से जनमानस की अमियाँ लद तो गई थीं, फलित डालियाँ
लोक-जीवन की धरती पर झुक तो गई थीं, किन्तु सरस पीयूष से परिपक्व मृदु रसाल,
प्रेम-पवन के झोंको में लहराकर यदि कहीं टपके तो तुलसी के हृदय की अमराइयों
में, जिसका रसास्वादन कर भक्त कवि ने परम आनन्द की अनुभूति प्राप्त की।
एक संयोग ही था कि शिशु तुलसी को पितृ-गृह का वात्सल्य-विहीन विषाक्त व्यवहार
मिला। फिर बाल्यकाल में उस अबोध की दयनीय संघर्ष-लीला अनाथ होने से भी न बच
सकी। लोगों की दयादृष्टि पर निर्भर बालक तुलसी की क्षुधा-पिपासा इधर-उधर
प्रताड़ित होने लगी। तिरस्कार के थपेड़ों में उसका बाल-जीवन आहत हो चला। रजकणों
से लिप्त नन्हे तुलसी के नन्हे-नन्हे थके पाँव संयोग वश सन्त नरिहर के मार्ग
में भटक रहे थे। बालक तुलसी की दशा, प्रतिभा तथा अभिरुचि देख सन्त जी मुग्ध हो
उठे और उस नन्हे पपीहे को आश्रम लाकर रामनाम-मंत्र दिया।
तुलसी का शेष बचपन वात्सल्य की छाया में स्वामी नरिहरदास के आत्मीय भाव में
पला। उपदेश, शिक्षा, ज्ञान एवं सत्संग के अभिसिंचन से संतृप्त उनके किसलय
किशोरवय वर्ष युवावस्था तक प्रगमित हुए। वहीँ तुलसी के हृदयपट पर रामकथा का
अवतरण हुआ और उनके ग्राही हृदय ने ज्ञान-परिज्ञान का असीम भंडारण किया।
सत्य-स्वप्न का चलचित्र तो तुलसी के गृह्स्थ जीवन में ही झलका। रत्नकंदल अधरों
की सुषमा से सुशोभित साक्षात् सौन्दर्य की रत्नराशि 'रत्ना' से तुलसी का परिणय
हुआ। अधर-रस के मदभोग में वे डूब-से गए। वासना-सरोवर में निमग्न अंध मदन की
प्रेम-याचना तुलसी के जीवन की एक महान घटना बन गई। स्वर्ण-श्रंगारित, रजत-यौवन
से लसित, हीरक-घटा की चपल कामिनी 'रत्नावली' के नयनों में, वह रति-त्रिवेणी
बहा करती, जिसमें तुलसी की काम-नौका को, जल-तरंगों के मनोभव में, केलिक्रीड़ा
के अतिरिक्त तट-दिशा का ज्ञान ही न रहता।
एक रात्रि नवरंग-प्रसंग में, मादक घात-प्रतिघात से स्रवित सीत्कार में,
सौन्दर्य-गर्विता पत्नी 'रत्ना' का अट्टहास-व्यंग्य--
"मेरे ऐसे नश्वर तन से माँगो न प्रीति दिन-रात पिया"
पतंग-मन तुलसी के अन्तरिक्ष में महाक्रांति बन गया। भार्या का एक व्यंग्य वचन
बाण-सा चुभ गया। तुलसी की विक्षिप्त काम-वासना नष्ट-भ्रष्ट होकर सदा के लिए
चूर-चूर हो गई। सुंदरी 'रत्ना' की अस्थि-मज्जा से निर्मित मांसल देह,
शरीर-सौष्ठव, यथार्थ में तुलसी को नश्वर लगा। नश्वर तन की प्रीति-रीति में
भीगी तुलसी की चित्तगति त्याग के धवल धार में उज्जवल हो उठी।
उत्क्रांति की उस रात्रि में कामिनी 'रत्ना' सत्य-सन्देश की देवदूती बन बैठी।
उसकी व्यंग्य-वाणी वैराग्य-संदीपिनी की ज्योति बनकर तुलसी के अंतस्थल में समा
गई। जागृत विराग भावना से ओत-प्रोत तुलसी, हतभ्रान्त करुण क्रन्दन करती
अर्धांगिनी को त्याग कर, अर्धरात्रि में ही गृहद्वार से सदैव के लिए निकल पड़े
और अपने अभीष्ट पथ की ओर चल दिए।
तुलसी अब सांसारिकता से विरक्त होकर साधना-रत हो गए। तीर्थों के परिभ्रमण में
अनेक तीर्थ-स्थलों की यात्रा करना उस भक्तयोगी की दिनचर्या बन गई। वैदहीपति के
प्रति उनकी रागानुका दिन-प्रतिदिन प्रगाढ़ होती गई। एक कामी पुरुष का
पुरुषार्थ अलौकिक दर्शन में लवलीन होता गया।
एक दिन, भक्ति-मंजूषा की मंजु वेला में मंजुल लालिमा प्रस्फुटित होने लगी।
तापस तुलसी के व्याकुल चातक चक्षुओं ने देखा-- रश्मि-अनल से मंडित साकेत लोक
की सम्राज्ञी, द्वय तेजस्वी धनुर्धारियों के मध्य प्रत्यक्ष खड़ी हैं। राम-नाम
की चन्द्रकांत शैलमाला से सोम सलिल की सरिता उनके हृदयतल में प्रवाहित हो उठी।
कर्णशून्य में जय ध्वनि का शंखनाद गूँज उठा। उनका कवि मन मुखरित होकर मौन लय
में जैसे कुछ गा उठा।
प्रेमाश्रु की दो मकरन्द बूँदें उनकी दृग-अंजलियों से छलक कर अविरल धारा में
बह चलीं। फिर वही बूदें निज इष्टदेव की चरण-धूलि पाकर, शांत स्वर में, मधुर
संगीत की तन्मय धनु में, "मन क्रम वचन प्रेम अनुरागी" के
उच्चघोष में, "बरसहिं राम सुजस बर वारी" का कलरव छेड़ती,
"कलि मल समनि मनोमल हरिनी" के तीव्र उफान में,
"कठिन कुसंग कुपंथ कराला"
को ढहाती, बहाती, "विधि केहि भाँति धरों उर धीरा" के प्रबल
प्रवाह में बहती हुई 'रामचरितमानस' का रूप धारण कर पृथ्वीतल की स्वर्गगंगा बन
गईं।
फिर एक दिन, हिन्दू जन-जीवन के उपवन में 'रामचरितमानस' कल्पवृक्ष की भाँति
लहलहा उठा। उसके पुष्प-अंचलों से गुँथे हरित पल्लवों को देख समूची हिन्दू जनता
चकित हो उठी। 'मानस' कल्पतरु की पुलकित झूमर से उठी पावस वसन्त की सुगन्धित
वायु झोपड़ियों से लेकर राजभवनों तक फैलने लगी।
और फिर व्यक्ति बिंदु से चलकर समाज, राष्ट्र और अखिल विश्व के चरम विस्तार तक
व्याप्त मानव-जीवन के समस्त क्षेत्र 'मानस' के उत्संग में समा गए। विप्लवी
मनुष्य के जन्म-उदय से लेकर मृत्यु-विराम तक की लगभग सभी गतिविधियों का
उद्बोधन मानस के सप्त सोपानों में आ मिला। जीवन-यात्रा के प्रत्येक पक्ष,
ऊँची-नीची विविध कर्मभूमियाँ, अनेक श्रेष्ठ एवं पतित चरित्रों का व्यवहार,
कर्तव्य एवं दायित्व के अनेकानेक ऊर्ध्वमुखी व विगलित स्थल और सुख-दुःख के
सुन्दर समन्वय में वैदिक अतीत का दृश्यमान 'मानस' के स्वर्ण दर्पण-अंक में
चमकने लगा।
और अंतत: 'मानस' मानव-जीवन का मर्मपराग, सत्य के प्रतिमूर्ति राम एवं
सच्चरित्र की प्रतिमा सीता का जीवनदर्शन और कर्म-विपर्यय एवं विद्वेषण के
अतिदाह से परितप्त, तपस्वी युग-पुरुष का कीर्ति-ग्रंथ सिद्ध हुआ।
संस्कृति एवं सभ्यता के आर्यावर्त में व्यष्टि और समष्टि के 'उत्थान-पतन',
'जय-पराजय' का अनोखा वर्णन, राजा की वत्सलता में प्रजा के समग्र कल्याण का
अद्वितीय उदाहरण, आध्यात्मिक व सामाजिक विस्तार में लोक मनुज की अविस्मरणीय
स्मृति, कल्याणकारी साम्राज्य में 'न्याय की पालकी', 'नीति का खटोलना, दर्शन
के हिंडोले व कला के झूलों' की अध्यवसायी हिलकोरियाँ, वैदिक शिष्टाचार व
संस्कार के बहुमुखी प्रतिमान में आत्मजागरण की प्रेरणाभूमि, मृण्मय जीवन के
अरथी-पथ में पातक की अंतयातना का रहस्य, राक्षस, मनुष्य और देवता की सामाजिक
पात्रता की उत्तम शिक्षा, शील व स्नेह की भाषा में 'दया का भाव', 'क्षमा की
रीति' का पाठ, ऋचियोग की साधना में तप-जप-यज्ञ का दृश्यादृश उद्धरण, गृह-पिंजर
के पारिवारिक परिवेश में परिजनहास व कुटुंब-कलह का संवेदनशील परीक्षण,
प्रेम-प्रणय के संयोग व वियोग में प्रीति व विरह की अनूठी वेदना का उल्लेख,
विशाल रणभूमि की जिजीविषा में रणशूर-पराक्रम की सार्वभौमिकता का अनुशीलन,
आलाप-विलाप के उच्छ्वास में हृदयस्पर्शी मनोदशा का चित्रण आदि क्या-क्या नहीं
अवतरित हुआ 'मानस' के अंतस्पटल पर। उसकी थाती में जीवन सर्वांग का सर्वस्व झलक
उठा। उसके वर्ण-तूलि की प्रसार-वर्षा से मानव-जीवन का कोना-कोना भीग गया।
धीर, वीर, गंभीर, कौशलेय की आदर्श मानवता, महाप्रतापी शत्रु लंकेश की
दुश्चेष्टित उच्छृंखलता और सती, साध्वी सीता की पतिपरायणता के त्रिकोण प्रांत
में 'सत्यं शिवं' के सूर्य से 'सुन्दरम्' का ज्योतिर्मय अरुणोदय मन के
मानंस-मंडल को आह्लादित कर देता है।
'मानस की पद्य सुष्ठता कवि-संसार की अमूल्य गरिमा है। भाव-सरोवर की निर्झरिणी
तुलसी के हृदय-मार्ग से उलझकर बहती हुई 'मानस' के भाव-भँवर में समाहित हो गई।
ऐसा लगता है की 'मानस' की धरती पर स्वयं कला-विधायिनी सरस्वती, काव्य की परी
बनकर, कविता की ज्योति-पिछौरी ओढ़े जगमगाती हुई उतर आई हैं।
काल के महापाताल में तुलसी के पार्थिव शरीर को विलीन हुए कितने ही शत वर्ष बीत
गए। मानस-मंदाकिनी की धाराएँ उसी गति से संस्रवण करती रहीं। भारत वर्ष और दूर
देशों में आज भी 'मानस' के चौपहल छन्द देववाणी के सामान पूजित हैं।
भविष्य में, समय-चक्र के असीम पथ में, अनन्त काल तक, 'मानस' की विमल वेणियाँ
मानवता को सहारा देती रहेंगी। तुलसी की भक्तआत्मा का हर्षातिरेक काव्यजगत्
में, जन-मानस में, पुरुषार्थ-क्षेत्र में चिरकाल तक गूँजता रहेगा।
माटी का दीया, जीवन-सा जिया
आज धनतेरस है, कल छोटी दिवाली और परसों दीपावली। हमारे यहाँ कहीं तीन दिन और
कहीं-कहीं लगातार पाँच दिनों अर्थात् धनतेरस से भैयादूज तक दीया जलाने का
प्रचलन है। शरद ऋतु के आगमन पर दीपावली हर्षोल्लास का पर्व है, मंगलता का पर्व
है। कहते हैं कि चौदह वर्षों के वनवास के बाद राम, लक्ष्मण और सीता के
अयोध्या वापस आने पर नगरवासियों ने उनका स्वागत तोरण-बंदनवार की उल्लसित सज्जा
तथा सघन ज्योतित दीप-मालाओं से किया था। उसी दिन की स्मृति हर साल लौट कर आती
है और हर साल पूरा भारत उसी तरह दीप-मालाओं से सज उठता है।
दीप की जगह भले ही विद्युत-प्रकाश ने ले लिया हो, पर दीपावली पर माटी का दीया
अपनी ज्योति और ज्योतित सौन्दर्य के साथ हर साल हमें सन्देश देने आ जाता है।
जैसे कहता हो कि तुम हमसे भिन्न नहीं; तुम्हारा अस्तित्व मेरी माटी की काया,
मेरे तेल और बाती, मेरे जलते-बलते रूप-रंग और मेरी ज्योति के अवसान से कितना
मेल खाता है। कदाचित्, वही अभिन्नता हमें माटी के दीये से जोड़े हुए है और हम
माटी का दीया जला-जलाकर जैसे अपने जीवन का आलोक-पथ निर्धारित कर लेते हैं,
अपना एक साल और आलोकित कर लेते हैं। तभी तो माटी का दीया अपने थोड़े से तेल,
अपनी छोटी-सी बाती के साथ हर साल जलता-बुझता है, हर साल टूट कर मिट्टी में मिल
जाता है; किन्तु फिर भी हार नहीं मानता, जैसे कि हमारी जीवन-ज्योति, हमारी
जिजीविषा, हमारी संघर्ष-गाथा आदिम युग से आज तक पराजित होने को तैयार नहीं।
अपने अंतिम समय में तथागत को आभास हो गया था कि जर्जर शरीर अब और साथ नहीं
देगा। भिक्षुकों ने जब अंतिम सन्देश की याचना की तो वे बोले कि मेरे पास ऐसा
कुछ भी नहीं है कि अंतिम रूप से तुम्हें दे सकूँ-
"अप्प दीपो भव"
अर्थात् स्वयं दीपक बनो। आज ज्योति पर्व पर मैं सोचता हूँ कि तथागत ने
भिक्षुकों से और कुछ बनने के लिए क्यों नहीं कहा। उन्होंने न तो ब्रह्माण्ड के
विस्तार की बात की, न ही गगन की ऊचाँई की और न ही समुद्र की गहराई की। उन्हें
सार्थक मनुष्य-जीवन के समानांतर छोटा-सा दीपक ही क्यों दिखाई दिया ? क्या
अनायास वे अपना अंतिम सन्देश मनुष्य के लिए छोड़ नहीं गए ? मेरा मन कहता है कि
हठात् उनके मुख से निकला स्वयं दीपक बनने का अनुभूत सत्य ही उनका अंतिम सन्देश
है, मानव-जीवन का महासूत्र, जिसमें उनकी जीवन-दृष्टि का सार निहित है।
इसलिए जलता हुआ माटी का दीया मुझे जीवन की ज्योति-सा लगता है; ठीक जीवन-सा
प्रकाशमान, वैसा ही लघु अस्तित्व, वैसा ही संघर्षशील, वैसा ही स्वाभिमानी और
वैसा ही क्षणभंगुर। जीवन की क्षणभंगुरता पर पंत ने लिखा है--
"
मोतियाँ जड़ी ओस की डार,
हिला जाता चुपचाप बयार;"
अर्थात् ओस की बूँदों से सजी हुई डाल की अप्रतिम शोभा बस अचानक हवा के हल्के
झोंके से बिखर जाती है। यही हाल हमारे जीवन का भी है; मृत्यु का तनिक भर झटका
सहसा जीवन की हरी-भरी डाल को बिखेर कर रख देता है। पर पन्त ने जिन मोतियों की
बात की है, वे ऐश्वर्य और महार्घता का संकेत करती हैं। जबकि दीपक तो ज्योति का
ऐश्वर्य और ज्योति की महार्घता लिए होता है। उसकी ज्योति का अवसान अनोखे अतीत
और अविस्मरणीय इतिवृत्त के साथ होता है। इसलिए मानव-जीवन को जितने भी उदहारणों
से समझाया गया है, उसके लिए जितने भी उपमान जुटाए गए हैं, उनमें सबसे उपयुक्त
मुझे मिट्टी का जलता हुआ दीपक ही लगता है। तिल-तिल संघर्ष करता हुआ, हिलती हुई
लहर के साथ जलता हुआ, बुझते-बुझते हाथ की ओट से बच जाता हुआ और फिर-फिर जलता
हुआ माटी का दीया।
मानव-जीवन में भी माटी के दीये की तरह नेह की बाती, स्नेह का तेल और हाड़-मांस
की क्षणभंगुर काया होती है। उसमें भी दीये की ऊपर उठती लहर के समान अँधेरे से
लड़ने का उर्ध्मुखी स्वाभिमान होता है। तभी तो ह्रदय में प्रज्वलित दीप का
स्वाभिमान समय-असमय राम तक को धिक्कारता है कि मेरे इस विरोध ही पाते आये जीवन
को धिक्कार है! जिसकी शोध में बराबर लगा रहा उस साधन को धिक्कार है! (जानकी की
स्मृति तथा व्यथित उच्छवास के साथ) .. हाय! प्रिया का उद्धार न हो सका-
"धिक् जीवन जो पाता ही आया विरोध,
धिक् साधन जिसके लिए सदा ही किया शोध!
जानकी! हाय उद्धार प्रिया का न हो सका!"
( राम की शक्तिपूजा, निराला )
पर तत्क्षण ही जैसे बुझता हुआ दीप जल उठता है, राम की एक और स्मृति जाग उठती
है और वे बोल पड़ते हैं कि माता मुझे सदा 'राजीवनयन' कहा करती थीं; इस तरह तो
अभी भी मेरे पास दो नील कमल शेष हैं; माते! उनमें से एक नयन देकर यह पुरश्चरण
पूरा करता हूँ-
"कहती थीं माता मुझे सदा राजीवनयन!
दो नील-कमल हैं शेष अभी, यह पुरश्चरण
पूरा करता हूँ देकर मात: एक नयन।"
( राम की शक्तिपूजा,
निराला )
इसीलिए महादेवी "
सब बुझे दीपक जला लूँ... ...आज दीपक राग गा लूँ।"
की बात करती हैं। दीपक-राग यानि कि उर्ध्व लौ से प्रकाश बिखेरने का राग,
उजाले द्वारा अँधेरे का सामना करने का राग, बुराई पर अच्छाई के विजय-अभियान का
राग। इस तरह देखें तो महादेवी की दीपक-रागमाला का ही दूसरा नाम 'दीपावली' है।
जैसे ज्ञान, अस्मिता, सौहार्द आदि के विजयोत्सव पर हमारे घर-आँगन दीप-मालाएँ
धारण कर जगमग हो उठते हों; अन्यथा दीया जलाने और दीपावली मनाने की कोई
सार्थकता नहीं।
भौतिक रूप से दीपावली हर साल एक साँझ की रोशनी लेकर आती है और साल भर के लिए
चली जाती है, किन्तु प्रतीकात्मक रूप से मानव-जीवन के लिए उसका सन्देश
चिरकालिक है। जब तक अज्ञान रहेगा, अन्धकार रहेगा, तब तक दीपावली हमारे घर-बार
आती-जाती रहेगी। किन्तु आज बाहर के अँधेरे से कहीं अधिक भीतर का अँधेरा
मानव-जीवन को बाधित कर रहा है। इसलिए भीतर के दीये को और अधिक लम्बी नेह की
बाती तथा और अधिक स्नेहिल तेल की आवश्कता है। दीपावली और दीया अब तो प्रतीक
मात्र रह गए हैं। विज्ञान ने बाहर की दुनिया इतनी जगमग कर दी है, इतनी रोशनी
फैला दी है कि चकाचौंध में माटी का दीया और उसकी बाती और उसकी लौ सब-के-सब हीन
से हीनतर हो रहे हैं। जबकि भीतर का अँधेरा विज्ञान के बस का नहीं। अपने भीतर
की कोठरी में और उसके अँधेरे में मनुष्य आज भी उतना ही बौना है, जितना आदिम
युग में था। अंतर सिर्फ़ इतना है कि आज वह बड़े-बड़े नाखूनों से, पत्थरों से,
तीर-कमान से और तेग-तलवार से हमला नहीं करता; बल्कि अत्याधुनिक अस्त्र-शस्त्र
उसके शस्त्रागार में सम्मिलित हो गए हैं।
भीतर के अँधेरे से मानव-जीवन की लड़ाई अब भी बड़ी लम्बी है। न जाने कितनी
दीपावलियाँ आईं और चली गईं; किन्तु अब भी मनुष्य के भीतर का दीया कमज़ोर बाती,
छीजते तेल और काँपती लहर के साथ कम संकटग्रस्त नहीं है। जैसे-जैसे भौतिकता ने
अपना पाँव पसारा, वैसे-वैसे मनुष्य-जीवन के बहिरंग में शिक्षा, विज्ञान,
ऐश्वर्य आदि का प्रसार बढ़ा, किन्तु उसके अन्तरंग में उजाले का क्षेत्र संकुचित
होता गया और अँधेरे ने अपना साम्राज्य बढ़ा लिया। तभी तो बड़ी-बड़ी डिग्रियों का
बोझ सिर पर लादे उच्च शिक्षित वर्ग अपेक्षाकृत धनी मानी, सुखी समृद्ध होने के
उपरान्त भी सर्वाधिक अन्धकार-ग्रस्त है। महँगी दीपावली, महँगी आतिशबाज़ी और
अपने जगमगाते परिवेश में भी उसके भीतर का अँधेरा छट नहीं रहा। आज देश-दुनिया
में जो कुछ भी अनर्थ घट रहा है, उस सब का कारण अशिक्षा-कुशिक्षा ही नहीं,
अज्ञान-विज्ञान ही नहीं, बल्कि अतिशय ज्ञान, बाहरी चकाचौंध और दिग्भ्रम भी है।
वस्तुत: आज के चकाचौंध में जी रहे अभिनव मनुष्य को हजारों-लाखों की आतिशबाजी
छोड़ सिर्फ़ एक मिट्टी के जलते हुए दीपक को ध्यान से निहारने की आवश्यकता है।
उसे अपने भीतर भी एक दीया जलाने की आवश्यकता है। एक ऐसा दीया जो उसके भीतर के
अँधेरे को दूर कर सके। एक ऐसा दीया जो उसके ह्रदय में आत्मबोध तथा तत्वज्ञान
का निरभ्र आलोक फैला सके। और ऐसा ही दीया जलाने की बात नीरज ने की है--
"जलाओ दिये पर रहे ध्यान इतना, अँधेरा धरा पर कहीं रह न जाए।"
क्योंकि धरा का अँधेरा सिर्फ़ बाहरी रोशनी से नहीं मिट सकता। उसका अंत तो भीतरी
अँधेरे को भगाने से ही हो सकता है। जब भीतर का अंधकार छटता है, तो बाहर का
प्रकाश भी श्रेय और प्रेय होकर अपना निरामय रूप प्रसारित करता है। नहीं तो घोर
प्रकाश भी छल-दंभ, अनीति-अनाचार तथा बुद्धिनाश का अमानवीय इतिहास रचता रहा है
और दुनिया ऐसे प्रकाश से आज बहुत अधिक पीड़ित है। इसलिए मनुष्य का जीवन माटी
के दीये की तरह जलना है। जो स्वयं के लिए नहीं, दूसरों के लिए जलता है। चिराग
तले अँधेरा इसीलिये होता है कि वह स्वार्थ के लिए नहीं, बल्कि परार्थ-परमार्थ
के लिए जीता है। जीवन स्वयं एक ज्योति है, ज्योतित लौ-लहर है, आलोक-यात्रा है
और आलोक-पथ निर्धारित करना, उस पर अनवरत चलते जाना ही मानव-जीवन का धर्म है।
जीवन के ज्वलंत रूप-स्वरुप को देखना हो, उसके सार्थक संकल्प-विकल्प को बूझना
हो, उसकी जीवन-गाथा में अवगाहन करना हो और उसके प्रेरक स्मरणीय ज्योति की
दिवाली जगानी हो, तो निश्चित ही हमें ऐसे महान दीयों को स्मरण करना होगा, जो
आज भी मानव-ह्रदय में प्रदीप्त हैं। कभी वे राम के रूप में जले, तो कभी कृष्ण
के रूप में और कभी गौतम-महावीर के रूप-स्वरुप में उजागर हुये। उनका ईसा मसीह
का रूप अपने-आप में एक दिवाली है, तो उनकी पैगम्बर मोहम्मद की ज्योतिर्मयता
मानव-जीवन का स्वर्णिम ज्योति-पर्व। ऐसे माटी के दीये माटी की दुनिया में जब
तक जले, तब तक जले; उनकी ज्योति से आज भी
'तमसो मा ज्योतिर्गमय'
का मार्ग प्रशस्त है। इतना ही नहीं धरती से उठने के बाद वे हमें अपना अपार्थिव
झलक दिखाते जैसे आज भी ज्वाजल्यमान नक्षत्रो में प्रभाषित हो रहे हैं। तभी तो
आँखों को लगती मँहगी विद्युत-रोशनियों, ज्योति पर्व की शांति भंग करते
शोर-शराबे वाले पटाकों और आतिशबाज़ियो की भीड़ में माटी का दीया ही पूजित है।
क्योंकि तमाम रोशनियों में सच्चे अर्थों में वही मनुष्य-जीवन का प्रतिनिधित्व
करता है और अविद्या के विरुद्ध उसकी प्रज्वलित, मौन मुद्रा जैसे मुखरित हो
कहती हो-- माटी का दीया, जीवन-सा जिया।
नए दौर में सोशल नेट्वर्किंग की आलेखमुखी विधा
बात जब नव परिवर्तनों के दौर की है और वह भी हिन्दी वेब-लॉग यानि ब्लॉगिंग के
संबंध में तो 21 अप्रैल, 2003 की तारीख अमिट पद-चिह्न की तरह उल्लेखनीय है कि
उस रोज दिन-भर की हलचल के उपरान्त मध्याह्न की ओर पाँव बढ़ा चुकी रात्रि के
22:21 बजे हिन्दी के प्रथम ब्लॉगर, मोहाली, पंजाब निवासी आलोक ने अपने ब्लॉग
'9 2 11' पर अपना पहला ब्लॉग-आलेख पोस्ट किया। उनकी पहली पोस्ट भी कम दिलचस्प
नहीं है ---
"सोमवार, अप्रैल 21, 2003 22:21
चलिये अब ब्लॉग बना लिया है तो कुछ लिखा भी जाए इसमें। वैसे ब्लॉग की हिन्दी
क्या होगी ? पता नहीं। पर जब तक पता नहीं है तब तक ब्लॉग ही रखते हैं, पैदा
होने के कुछ समय बाद ही नामकरण होता है न। पिछले ३ दिनों से इंस्क्रिप्ट में
लिख रहा हूँ, अच्छी खासी हालत हो गई है उँगलियों की और उससे भी ज़्यादा दिमाग
की। अपने बच्चों को तो पैदा होते ही इंस्क्रिप्ट पर लगा दूँगा, वैसे पता नहीं
उस समय किस चीज़ का चलन होगा। काम करने को बहुत हैं, क्या करें क्या नहीं, समझ
नहीं आता। बस रोज कुछ न कुछ करते रहना है, देखते हैं कहाँ पहुँचते हैं। अब
होते हैं ९ २ ११, दस बज गए। आलोक।"
तब से अब तक लगभग इन दस वर्षों में जन-संचार भी ख़ूब न केवल सिर चढ़ कर बोला है,
बल्कि दिलोदिमाग पर ताता-थैया भी करता रहा है--- माइक्रोसॉफ्ट का
विन्डोज़-विस्टा, विन्डोज़-7 तथा 8, एमएस ऑफिस-2004, 2008 तथा 2011, उन्नत
पर्सनल कम्प्यूटर, लैपटॉप, टेबलेट, पॉमटॉप, उन्नत मोबाइल, उन्नत सोशल
नेट्वर्किंग, चैटिंग, ट्विटिंग, पेजिंग, ई-पेपर, ई-बुक, ई-लाइब्रेरी, स्मार्ट
क्लास, नेट-बैंकिंग, सेटेलाईट टीवी, टीवी चैनलों की भरमार, हाई टेक हिन्दी
फ़िल्में, दिल्ली मेट्रो आदि इसी दौर में देश-वासियों और देश-दुनिया के साथ
हिन्दी-भाषियों के भी रोजमर्रा के काम-काज, घर-बार और दैनिक जीवन के
प्रयोग-अनुप्रयोग में बहुतायत रूप में शामिल हुए।
और नव परिवर्तनों के इस दौर में अन्तर्राष्ट्रीय ब्लॉगिंग की व्यापक रूप-रेखा
के बीच देशीय मुद्रा सँवारते हुए और उससे अलग-विलग नया चेहरा गढ़ते हुए हिन्दी
ब्लॉगिंग वैश्विक जनसंचार-मंच पर अपनी अद्भुत अस्मिता के साथ आ उभरी। यह सोशल
नेट्वर्किंग की सर्वाधिक खरी, संपुष्ट, तार्किक और समाधानात्मक विधा है। यह
आलेखमुखी होकर भी तात्कालिक और प्रासंगिक मुद्दों को हाथों-हाथ लेने में तनिक
भी देर नहीं लगाती। यह अन्य नेटवर्कों की भाँति विध्वंसक आग न लगाकर अधिकतर
संसार खड़ा करने की बात करती है। यह अपने समवेत रूप-स्वरूप में पार्थ को दिए
गुरु-गंभीर सन्देश की तरह समाजिक सोच को मोड़ सकती है। अन्य नेटवर्कों के साथ
हिन्दी ब्लॉगिंग का भी व्यापक प्रभाव था कि स्वामी रामदेव के जनान्दोलन को
मिला समर्थन कितना अभूतपूर्व था, जिसमें दिल्ली के रामलीला-मैदान के साथ-साथ
सारा देश एकाकार-सा हो गया। हिन्दी ब्लॉगिंग का भी असर था कि राष्ट्रभ्राता
अन्ना हजारे को इतना ढेर-सारा जन-समर्थन मिला कि दिल्ली हिलने-सी लगी और
कूटनीतिक ही सही, भरी संसद को खड़े होकर सैल्यूट करना पड़ा। दामिनी-गुड़िया की
घटनाओं के समय ब्लॉगिंग, ट्विटिंग आदि ने जन-जन की ऐसी एकजुटता तैयार कर दी कि
पुलिस, दिल्ली-प्रशासन, केन्द्र सरकार और देश के क़ानून को अंतत: घुटने टेकने
पड़े, दण्ड-संहिता में संधोधन तक करना पड़ा और न्यायालय को ऐतिहासिक निर्णय देते
हुए एक साथ चार बलात्कारी आरोपियों को म्रत्यु-दण्ड देना पड़ा।
हिन्दी ब्लॉगिंग हिन्दी-क्षेत्रों से उद्भूत क्षेत्रीयता के साथ
राष्टीय-अंतर्राष्ट्रीय चेतना का प्रतिनिधित्व करती है। किन्तु अन्य नेटवर्कों
के समान हिन्दी ब्लॉगिंग की दृष्टि भी सदैव सकारात्मक नहीं होती। गत वर्ष
लखनऊ, मुम्बई, दिल्ली आदि शहरों में जिस तरह आतंकवादी भावना का साथ देने के
लिए नवयुवक सड़कों पर उतर आए थे, वह हिन्दी-भाषी लॉगिंग, ब्लॉगिंग आदि का बड़ा
भयावह रूप था। जागरण जंक्शन पर ही प्रस्तुत पंक्तियों के लेखक का सामना एक ऐसे
ब्लॉगर से हुआ जो टिप्पणी पर टिप्पणी के साथ अभद्रता और अश्लीलता पर अमादा
दिखाई दिए और उनके साथ उत्तर-प्रत्युत्तर के क्रम से स्वयं को अलग करना पड़ा।
अतएव इस क्षेत्र में अधिकांश योगदान विवेकशील नागरिकों का होना चाहिए, ताकि
देश और समाज के हित में उनकी स्वस्थ चेतना हिन्दी ब्लॉगिंग को आगे बढ़ा सके।
किन्तु जैसे जलजले के तीव्र बहाव में कूड़े-करकट-जैसे शक्तिहीन अस्तित्व कहाँ
बह-ढह जाते हैं कुछ पता नहीं चलता, वैसे हिन्दी ब्लॉगिंग का जो भाग समय की
धारा में विलीन हो जाएगा, वह जीवनपरक तथा दूरगामी सन्देश का हिस्सा नहीं हो
सकता। हाँ, जो तैरेगा, पैर टेकेगा, थमेगा और कहीं खड़ा हो सकेगा, वह अवश्य समय
की शिला पर निशान छोड़ेगा; कवि के शब्दों में ---
"यह स्रोतस्विनी की कर्मनाशा कीर्तिनाशा घोर काल,
प्रवाहिनी बन जाए ---
तो हमें स्वीकार है वह भी। उसी में रेत हो कर
फिर छनेंगे हम। जमेंगे हम। कहीं फिर पैर टेकेंगे।"
(अज्ञेय, नदी के द्वीप)
हिन्दी ब्लॉगिंग और हिंग्लिश
हिन्दी ब्लॉगिंग का इतिहास महज़ दस वर्षों का है, जबकि हिंग्लिश ईस्ट इंडिया
कंपनी के भारत आने और भारत-वासियों के उसके सम्पर्क में आने से लगभग 300
वर्षों पूर्व से चलन में आई। हिंग्लिश की तरह मिश्रभाषा का रूपण-विरूपण केवल
हिन्दी में ही नहीं, अपितु समस्त भारतीय भाषाओं और कमोबेश दुनिया की अनेक
भाषाओं में पाया जाता है। भाषा का ऐसा मिश्रित रूप-स्वरूप पारिस्थितिक प्रभाव
के कारण निर्मित होता है। अंग्रेज़ों और हिन्दी-भाषियों के परस्पर
भौतिक-सांस्कृतिक संघर्ष और आदान-प्रदान से पनपी हिंग्लिश अब इस देश में
अधिकतर फैशनपरस्तता तथा बोल-चाल की अतिरंजना और दबंग भाषिक भंगिमा का चालू
सिक्का बनती जा रही है।
हिन्दी अपनी लचीली ग्रहणशीलता के चलते अनेक भारतीय-अभारतीय भाषाओं के शब्दों
को आत्मसात करती रही है। पर इधर अत्याधुनिक सोशल नेट्वर्किंग, अंग्रेज़ी के
प्रति अधिक आकर्षण और फ़ैशनपरस्त मानसिकता के कारण हिंग्लिश के दो रूप सामने आ
रहे हैं --- पहला, अपेक्षित और उपयुक्त रूप तथा दूसरा, अनपेक्षित और विकृत
रूप। पहला रूप स्वीकार्य है और उसके कुछ उदाहरण दृष्टव्य हैं, जैसे-- आज स्कूल
बंद है। गाड़ी का टाइम हो गया है। मुझे ट्रेन पकड़नी है। बार-बार फ़ोन आ रहा है।
बेटी कॉलेज जाने लगी है। यह रोड कहाँ तक जाती है ? पेन्सिल ले आओ। पेन कहाँ रख
दी ? टीवी ऑन करो। सारे डकोमेण्ट डेस्कटॉप पर फोल्डर में हैं। ...इत्यादि।
भाषा-प्रयोग में किसी भी प्रकार के अति का होना हानिकारक है। आज-कल अतिरिक्त
दबाव से उत्पन्न हिंग्लिश के विकृत और अस्वीकार्य रूप हिन्दी का गठन बड़ी तेजी
से बिगाड़ रहें हैं। विगत दो दशकों से यह प्रवृत्ति और अधिक बढ़ गई है। कुछ
उदाहरण तो देखिए --- दीदी कितनी शाई है न! नाउ डेज़ मेरे डैड हांगकांग की
जर्नी पर हैं। देखो माम, ये डॉग्ज़ कितने डर्टी हैं! बट मैं क्या करूँ ? मैं
एक्च्युली मार्निंग वाक के लिए निकला था। मेरे भी बुक्स बैग में डाल लो। आज-कल
मुझे घर में बहुत वर्क करना पड़ता है। एक गिलास वाटर देना यार! ... इत्यादि।
हिंग्लिश के अपेक्षित और उपयुक्त रूप से हिन्दी की व्यापकता बढ़ती है, वह
समृद्ध होती है और वह राष्ट्रीयता-अंतर्राष्ट्रीयता के शिखर पर प्रतिष्ठापित
होती है। 'कौन बनेगा करोड़पति' में अमिताभ बच्चन द्वारा बोली जाने वाली हिन्दी
और प्रयोग किए गए उनके हिंग्लिश-रूप हिन्दी के स्तर को किस तरह भाषागत ऊँचाई
प्रदान करते हैं, यह पूरी दुनिया देख-सुन रही है, कहने की आवश्यकता नहीं। वे
राष्ट्रभाषा की गरिमा के अनुरूप अपने अनोखे लहज़े, आवाज और अंदाज़ में अत्यंत
लोकप्रिय, मानक, कभी संस्कृतनिष्ठ, कभी हिन्दुस्तानी हिन्दी बोलते हैं; कभी
अच्छी, अपेक्षित हिंग्लिश और कभी ज़रुरत पड़ते ही फर्राटेदार सुग्राह्य
अंग्रेज़ी। ऐसी हिन्दी, हिंग्लिश और अंग्रेज़ी से, ऐसी भाषा और ऐसे भाषा-रूप से
किसे गुरेज़ हो सकता है। भाजपा नेत्री सुषमा स्वराज, आज तक के पुण्य प्रसून
बाजपेयी और इंडिया टीवी के रजत शर्मा की हिन्दी-हिंग्लिश स्वरूपों को भी
अनुकरणीय बानगी के तौर पर लिया जा सकता है। ये लोग प्राय: अच्छी हिन्दी का
प्रयोग करते हैं और अत्यंत अपेक्षित अंग्रेज़ी शब्दों का संतुलन साधते हुए
प्रासंगिक हिंग्लिश का व्यवहार करते हैं।
पर आज-कल अभिव्यक्ति में अक्षम और अंग्रेज़ी के दबाव से पस्त लोग जिस तरह
बार-बार बट, एक्चुअली आदि लगाकर हिंग्लिश का जैसा विकृत प्रयोग कर रहे हैं,
उसे हिन्दी की पाचक-क्षमता कैसे स्वीकार कर सकती है ? भाषा का ऐसा प्रयोग
हिन्दी के रूप को तो बिगाड़ता ही है, साथ ही बलात् हिंग्लिश से उनके अतिवादी
होने के दुराग्रह को भी प्रकट करता है। कदाचित् ऐसे लोगों के अतिवाद के कारण
ही 'अंग्रेज़ चले गए, औलाद छोड़ गए'-जैसा मुहावरा प्रचलित हुआ होगा।
और हिंग्लिश के जो तथ्य-कथ्य हिन्दी से जुड़े हैं और हिन्दी के लाभ-हानि को
प्रभावित करते हैं; वही हिन्दी-ब्लॉगिंग के साथ भी लागू होते हैं। यदि हिन्दी
ब्लॉगिंग को विश्व-वांड्मय में सम्मिलित होना है, आगे बढ़ना है, विश्व-स्तर पर
नाम कमाना है, तो हिंग्लिश के अतिवाद और कृत्रिमता से बचना होगा। उसे मानक
हिन्दी में अर्जुन के तीर छोड़ने होंगे। हलधर की भाँति सहज, सुन्दर, प्राकृत
हिंग्लिश का हल कुरुक्षेत्र में चलाना होगा। यदा-कदा अंग्रेज़ी-उद्धरणों के
खातिर रोमन लिपि का युधिष्ठिर-भाला प्रक्षेपण की साधना के साथ फेंकना होगा।
अंतत: हिन्दी-ब्लॉगिंग का कुरुक्षेत्र अर्जुनों, भीमों और युधिष्ठिरों की
प्रतीक्षा कर रहा है, हिंग्लिश उसके लिए कोई समस्या नहीं बन सकती। समस्या तो
झाड़-झंखाड़ काटकर मरुभूमि को तोड़ने की है, उसे उपजाऊ बनाने की है,
उमड़ते-घुमड़ते बादलों को धरती पर उतारने की है। इस प्रकार इंग्लिश-हिंग्लिश,
उर्दू-बँगला सब के साथ तालमेल बिठाती ब्लॉगिंग के पाण्डव-ब्लॉगर चातक की नाईं
स्वाती की हवा में धीरे-धीरे कोटर से चोंच काढ़ रहे हैं और हिन्दी अपने वेब-पट
के मेघाच्छादित आसमान में आँचल लहराने लगी है।
तकनीकी माध्यमों में हिंदी अनुप्रयोग की संभावनाएँ
वैसे तो स्वतंत्रता-प्राप्ति के 65 वर्षों के उपरान्त आज के अत्याधुनिक
तकनीकी माध्यमों में "हिंदी अनुप्रयोग की सामयिक आवश्यकता" की जगह संभावनाओं
की तलाश राष्ट्रभाषा के प्रति हमारे दृष्टिकोण का हल्कापन ही प्रकट करता है,
पर है यह विषय इतना प्रासंगिक कि राष्ट्रभाषा की घटती व्यावहारिक महत्ता और
अंग्रेजी की दिन-पर-दिन बढ़ती सत्ता के तथ्यों को काफी कुछ उजागर करने में
हमारी मदद करता है। विभिन्न तकनीकी माध्यमों में हिंदी-अनुप्रयोग की संभावनाओं
पर विचार करते समय पहले हमें यह देखना होगा कि इन माध्यमों में कैसी भाषिक
चेतना वाले लोगों की (भारतीय अथवा अंग्रेजीदाँ) पूँजी लगती है, कैसी भाषिक
चेतना वाले लोगों द्वारा ये संचालित होते हैं और कैसी भाषिक चेतना वाले लोगों
के लिए ये माध्यम कार्य करते हैं। दूसरे यह कि भारतीय अर्थ-व्यवस्था, बाजार,
शासन-प्रशासन, विज्ञान-प्रौद्योगिकी, कृषि, चिकित्सा, वाणिज्य आदि के क्षेत्रों
में दिनोंदिन अंग्रेजी के बढ़ते दबदबे और परिणाम स्वरूप भारतीय जनमानस पर पड़ते
उसके मनोवैज्ञानिक प्रभाव के विभिन्न पहलुओं को समझे बिना तकनीकी माध्यमों में
हिंदी अनुप्रयोग की संभावनाओं को ठीक-ठीक नहीं समझा जा सकता है।
तकनीकी माध्यमों से जुड़े जिस वर्ग-त्रयी का उल्लेख किया गया, उसमें पहला वर्ग
पूँजीपतियों का है, जिसका झुकाव अंग्रेजों के शासन-काल से ही अंग्रेजी की ओर
है। अपवाद रूप में इस वर्ग के कुछ सच्चे राष्ट्रभक्तों और हिंदी प्रेमियों को
छोड़कर बाकियों की अंग्रेजी-मानसिकता के कारण (अन्य अनेक कारण भी हैं) हिन्दी
आज तक राष्ट्रभाषा का वास्तविक स्थान नहीं पा सकी। यह वर्ग बोलचाल में हिंदी
अथवा अन्य भारतीय भाषाओं का प्रयोग तो करता है, किन्तु लिखने-पढ़ने में इसकी
भाषिक क्षमता अंग्रेजी में पाई जाती है, हिंदी में प्राय: नहीं। इस वर्ग की
भावी पीढ़ियाँ माँग-पूर्ति के इस व्यावसायिक जगत में हिंदी अथवा अन्य भारतीय
भाषा-भाषी जनता की क्रय-शक्ति के चलते बोलचाल में "हिंग्लिस" का प्रयोग तो अभी
कुछ दशकों तक करती रहेगीं, किन्तु लिखने-पढ़ने में उनके द्वारा हिंदी के
तिरस्कार की प्रबल संभावना है।
दूसरा वर्ग, मध्यस्थों का है, जो सीधे तकनीकों से जुड़े होते हैं। इस वर्ग में
मीडिया-कर्मी, ज्ञान-विज्ञान, प्रौद्योगिकी, शिक्षा, चिकित्सा, कृषि, सिनेमा
आदि क्षेत्रों के तकनीशियन, विशेषज्ञ, भाषाविद, कलाकार, चित्रकार आदि आतें
हैं। इनकी वृत्ति 'सेवा और अर्जन' पर टिकी होती है। इस वर्ग के अधिकांश लोग मन
से न सही, किन्तु रोजी-रोटी के गहराते संकट और बढ़ती आवश्यकताओं के कारण
अंग्रेजी से प्रभावित हैं। भारतीयता में अपने पाँव टिकाये रखने के लिए ये लोग
द्विभाषिता-बहुभाषिता की क्षमता अपनाकर सक्रिय हैं। उन्नीसवीं शताब्दी के
उत्तरार्द्ध तक हमारे देश के अधिकांश क्षेत्रों में अंग्रेजी छठीं कक्षा से
पढ़ाई जाती थी, किन्तु आज इनके बच्चे नर्सरी से ही अंग्रेजी माध्यम के
पाठ्यक्रमों से शिक्षा पा रहे हैं। ऐसे में इनकी आगामी पीढ़ी से अपवादों को
छोड़कर हिंदी अथवा भारतीय भाषाओँ के प्रति आत्मीयता की आशा करना व्यर्थ है।
रहा तीसरा वर्ग, जो आम नागरिकों का वर्ग है और जिसमें तरह-तरह के लोग आते हैं
- शिक्षित-अशिक्षित, सरकारी-अर्धसरकारी-गैर सरकारी वेतनभोगी, किसान-मजदूर,
भिन्न-भिन्न काम-धंधों से जुड़े गाँव और शहर के लोग, उच्च-मध्य-निम्न वर्गीय
इत्यादि। यह भाँति-भाँति लोगों का भाँति-भाँति के वातावरण और ज़मीन से जुड़ा
वर्ग है और मोबाइल फोन, लैपटॉप, पामटॉप आदि उन की भी पहुँच के दायरे में हैं।
सामान्यतया अभी तक यह वर्ग हिंदी अनुप्रयोग के लिए अपने मन-मस्तिष्क का द्वार
खोले हुए है, किन्तु इसकी दृष्टि उन्हीं पूँजीपतियों, राजनेताओं, नौकरशाहों,
फ़िल्म और खेल जगत के सितारों आदि पर लगी हुई है, जिनकी जीवन-शैली प्राय:
पाश्चात्य चकाचौंध और अंग्रेजियत से प्रभावित है। गौर करने लायक तो यह है कि
पूर्णतया भारतीय भाषा-भाषी मानस रखते हुए इस वर्ग के लोग भी अपनी संतानों को
लेकर अंग्रेजी माध्यम के स्कूलों की ओर रुख किए हुए हैं और जो किन्हीं कारणों
से नहीं किए हुए हैं, वे भी ऐसे स्कूलों के पक्ष में उत्साहित हैं। ग्रामीण
क्षेत्र के कृषक-मजदूर या तो उस तरह का विद्यालयीय वातावरण नहीं पाते या फिर
उनकी आय अंग्रेजी माध्यम के पब्लिक स्कूलों का खर्च वहन करने में असमर्थ है।
किन्तु उनकी समझ में भी यह तथ्य घर करता जा रहा है कि यदि हमें अपने बच्चों का
भविष्य सुनहरा बनाना है तो हिंदी माध्यम से काम नहीं चलेगा।
इसी प्रकार यदि शासन के आधार पर देखा जाए तो 2 वर्ग सामने आते हैं-- शासक वर्ग
और शासित वर्ग। प्राय: शासक वर्ग वरिष्ठ और आदर्श माना जाता है। यही कारण है
कि शासित वर्ग शासक वर्ग के पहनावे, रहन-सहन, खान-पान, बोली-भाषा आदि का
अनुकरण करना चाहता है। दुर्भाग्य से स्वतंत्रता प्राप्ति के 65 वर्षों के
उपरान्त भी शासक वर्ग की भाषिक क्षमता पर अंग्रेजी का नशा (कुछ राज्य सरकारों
और अधिकतर उनके निम्न श्रेणी लिपिकीय काम-काज को छोड़कर) चढ़ा हुआ है, जिसे
शासित वर्ग ललक भरी निगाह से देखता है और शासक वर्ग की तरह वह भी चाहता है कि
अंग्रेजी उसके सर चढ़ कर बोले। यही कारण है कि देश भर में अंग्रेजी माध्यम के
पब्लिक स्कूलों की संख्या तेजी से बढ़ रही हैI दूसरी ओर ग्रामीण क्षेत्रों में
ही नहीं, बड़े-बड़े शहरों में भी हिन्दी माध्यम के प्राथमिक-माध्यमिक विद्यालयों
(अधिकतर सरकारी) की देख-रेख, शिक्षा-व्यवस्था, अध्यापकों की उपस्थिति आदि इस
तरह अव्यवस्थित होती है कि कोई भी सजग नागरिक अपने बच्चों को या तो वहाँ भेजना
नहीं चाहता या विवशता में भेजता है। जहाँ तक उच्च स्तर पर विज्ञान,
प्रोद्योगिकी, कृषि, चिकित्सा, वाणिज्य आदि विषयों के माध्यम की बात है, तो
अभी तक अंग्रेजी माध्यम में ही श्रेष्ठतर मानी जाती है। साधारण परिवार के
हिन्दी भाषी छात्रों की बेहद माँग पर उच्च शिक्षा में हिन्दी माध्यम का
क्रियान्वयन अन्तर-राष्ट्रीयता व आधुनिकता के छठें दशक से चालू
कृत्रिम-राजनीतिक मिथक के कारण प्रभावशाली नहीं हो पा रहा है।
इस देश में जर्मन, फ़्रांसीसी, अरबी जैसी भाषाओँ के अनुप्रयोग की संभावनाओं की
तलाश की जाए तो बात समझ आती है, किन्तु 98 प्रतिशत भारतीय भाषा-भाषियों (जिनकी
कि एक अत्यन्त लोकप्रिय, सशक्त सम्पर्क भाषा है और वह भाषा हिन्दी ही है) के
बीच हिन्दी के अनुप्रयोग की संभावनाएँ तलाशना एक ओछे मज़ाक की तरह हृदय को बेध
जाता है, पर इस विडम्बना का सच यहाँ कार्यालयों, संस्थानों, हाट-बाजारों आदि
में पूरी तरह व्याप्त है। एक छोटी-सी बानगी एवं बड़ा स्पष्ट उदाहरण कि जब लखनऊ,
पटना, जयपुर, दिल्ली-जैसे बड़े शहरों में ही नहीं छोटे-छोटे कसबों में भी
हिन्दी में टाइपिंग के लिए भटकना पड़ता है, जबकि अंग्रेजी के टाइपिस्ट आसानी से
मिल जाते हैं और इतना ही नहीं, हिन्दी की टाइपिंग अंग्रेजी के मुकाबले काफी
मँहगी भी पड़ती है, तब लगता है कि हम हिन्दुस्तान में नहीं, इंग्लैण्ड में जी
रहे हैंI याद आतें हैं ऐतिहासिक मानव-रीढ़ के धनी व्यक्तित्व तुर्की के
राष्ट्रपति कमालपाशा, जिन्होंने सारे तर्क-वितर्क और राष्ट्रीय बहस के बाद यह
निर्णय देने में देर नहीं लगाई कि हमारे देश की राष्ट्रभाषा तुर्की होगी और उसे
आज ही आधी रात से लागू किया जाता है, किन्तु हमारे यहाँ पहले तो सदियों से
जातीय वर्गवाद के आधार पर निस्सहाय जनता का शोषण किया जाता रहा और अब
स्वतंत्रता के बाद से भाषाई वर्गवाद के सहारे बमुश्किल 2 प्रतिशत अंग्रेजीदाँ
लोग 98 प्रतिशत भारतीय भाषा-भाषी जनता का शोषण करने पर उतारू हैं।
इसलिए सच्चे मन से महात्मा कबीर की इस वाणी पर कान देने की ज़रूरत है कि "मोको
कहाँ ढूढे बन्दे, मैं तो तेरे पास में।" वस्तुतः हिन्दी अनुप्रयोग की सारी
संभावनाओं का केन्द्रक भारतीय संविधान में निहित है, जहाँ
राष्ट्रभाषा-राजभाषा-सम्बन्धी अनुच्छेदों में इस संशोधन की अपेक्षा है कि अब
से भारत संघ की राष्ट्रभाषा-राजभाषा हिन्दी होगी (अंग्रेजी को आज से जर्मन,
फ्रांसीसी, अरबी आदि की अंतर-राष्ट्रीय विज़न की विदेशी भाषा श्रेणी में रखा
जाता है)। राज्यों में उनकी अपनी भाषा जैसे कि तमिलनाडु में तमिल राजभाषा
होगी तथा संघ व राज्यों की सम्पर्क भाषा हिन्दी होगी। फिर तकनीकी माध्यम ही
नहीं देश भर में रोजी-रोटी से लेकर चोटी तक के सारे-के-सारे माध्यम-अमाध्यम
रातोंरात हिन्दी का स्वर अलापने लगेंगे। रही अंतर-राष्ट्रीय सम्पर्क की बात,
तो विश्व के अनेक महत्त्वशाली राष्ट्र हैं, उनकी भाषाएँ हैं, हमें उन सब को
महत्त्व देना होगा और इसके लिए विद्यालय-विश्वविद्यालय स्तर पर हमारे यहाँ
व्यवस्था है और अगर कम है, तो व्यवस्था बढ़ाई जा सकती है। हमारे यहाँ जागरूक
शिक्षार्थियों की कमी नहीं है और अगर कमी है, तो जागरूकता भी बढ़ाई जा सकती
है। अंतर-राष्ट्रीय स्तर पर रोजी-रोटी कमाने की इच्छा, अधिक अर्जन का दबाव,
अनेक भाषाओँ में दिलचस्पी आदि ऐसे तमाम कारण हैं कि हमारे यहाँ अंतर-राष्ट्रीय
सम्पर्क के लिए विदेशी भाषाओँ के जानकर नागरिकों की कमी कभी नहीं पड़ेगी। ऐसा
होने से इस देश का नागरिक उस भाषा में काम कर सकेगा, जिसमें वह पैदा होता है,
पलता-बढ़ता है और मृत्युपर्यंत सचेत-सक्रिय जीना चाहता है। फिर एक अरब से अधिक
जनसंख्या वाला यह देश ज्ञान-विज्ञान-परिज्ञान के क्षेत्र में निश्चित ही
बड़ी-बड़ी मिसालें कायम करने में सक्षम होगा। और फिर भविष्य में नवीन
आविष्कारों-उपलब्धियों के भारतीय भाषाओँ में भी रखे गए तमाम नाम सुनाई देने
लगेंगे। किन्तु इस तथ्य को हमारे अंग्रेजीदाँ कूटनीतज्ञ निहित स्वार्थों के
कारण समझना नहीं चाहते। वे तो हमारे देश की अधिसंख्य जनता की भाषिक चेतना
मारकर उसे निश्चेत और निष्क्रिय जीने को बाध्य करते हैंI
जहाँ तक हिन्दी मान्यता की बात है तो वह 10 वीं शताब्दी से लेकर आज तक
सर्वाधिक लचीली-सुलभ तथा चतुर्मुखी भाषा है। वह हर दृष्टि से राष्ट्रीय मंच
के उपयुक्त है। यहाँ हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि अमेरिका सहित दुनिया के सभी
विकसित देश अपनी चेतना को अपनी ही वाणी में रूपाकार देकर उन्नति के शिखर पर
पहुँचे हैं। साथ ही यह भी कि चीन, जापान, फ़्रांस, जर्मनी-जैसे विकसित देशों
की भाषा कभी भी अंग्रेजी नहीं रही और न ही वे अंग्रेजी के वर्चस्व से भयभीत
हुए। उनकी भाषाओँ की अपेक्षा वैज्ञानिक तथा तकनीकी माध्यमों में हिन्दी
अनुप्रयोग की तो और अधिक संभावनाएँ हैं।
अंतत: वर्तमान और भविष्य दोनों दृष्टियों से "तकनीकी माध्यमों में हिन्दी
अनुप्रयोग की संभावनाएँ" एक ऐसा मर्म है, जिसे हिन्दी तथा अन्य भारतीय भाषाओँ
के पद, प्रतिष्ठा, व्यावहारिकता आदि के सन्दर्भ में कुरेदा जाना जितना सामयिक
है, उतना ही समय रहते सावधान करने जैसा है। प्राचीन काल में संचार-तंत्र और
तकनीकी माध्यम जब इतने सशक्त नहीं थे, तब भाषा की मान्यता का मापदण्ड बोल-चाल,
लोकाभिव्यक्ति, साहित्य, शिलालेख, पाण्डुलिपियाँ आदि होती थीं, किन्तु आज
आधुनिक संचार-तंत्र एवं तकनीकी माध्यम इतने सशक्त हैं कि उनमें अधिकाधिक
अनुप्रयुक्त हुए बिना कोई भाषा मान्यता, लोकाप्रियता तथा राष्ट्रीयता के शिखर
पर प्रतिष्ठापित नहीं हो सकती। अन्यथा इस देश की भाषाओँ के
समानान्तरीय-द्विमार्गी होने का अभिशप्त खतरा और बढ़ता जाएगा- बोल-चाल में
भारतीय भाषाएँ और राज-काज, काम-काज, लेख-बाँच आदि में अंग्रेजी।जिससे राष्ट्र
अधभाषी, अधचेता, अर्ध-साक्षर और अर्धांग-अपंग होता जाएगा। दुर्भाग्य! कि जिस
पर मुक़दमा चलेगा या चलाया जाएगा, वह समझ नहीं पायेगा कि हमारे बारे में क्या
कहा जा रहा है या क्या बहस हो रही है और जो बहस करेगा या निर्णय सुनाएगा, वह
फरियादी के लिए नहीं, अपनी स्वार्थी अंग्रेजीदाँ हठधर्मिता के लिए, एक विकृत
राष्ट्रीय कूटनीति के लिए। और इसलिए जब हिन्दी अथवा अन्य भारतीय भाषा-भाषी
उपभोक्ता चाहे-अनचाहे अंग्रेजी के प्रभाव से मुक्त नहीं हो पा रहे हैं, उलटे
हमारी अभिव्यक्तियाँ अब अंग्रेजी मिश्रित भाषा (हिंगलिश आदि) के अगले पायदानों
पर कदम बढ़ा चुकी हैं, तो निश्चित ही तकनीकी माध्यमों में हिन्दी अनुप्रयोग की
सारी संभावनाएँ भविष्य में कहीं भ्रूण, कहीं शैशव, कहीं बाल, कहीं यौवन की
अवस्था में मृत्यु की घड़ियाँ गिनने को अभिशप्त हैंI इस शताब्दी की शतायु तथा
अगली शताब्दियों की दीर्घायु तक कौन कितना बच पाएँगी कहना कठिन है।
हिन्दी ग़रीबों और अनपढ़ों की भाषा बनकर रह गयी है (?)
जैसे कन्या-भ्रूण की हत्या इस देश में घटित होती है या फिर नारी-जीवन को आजीवन
बंधन में रखने, तड़पाने, तड़पा-तड़पाकर मारने, जलाने आदि की घटनाएँ आम हैं, उसी
तरह यहाँ घरवालों और बाहरी दोनों के दुर्व्यवहार से पीड़ित हिन्दी का उद्भव और
विकास उसके जन्म-काल से अब तक बाधाग्रस्त रहा है।
1025-26 ई. में मुहम्मद गजनवी के आक्रमण तथा सोमनाथ मंदिर के विध्वंश की
ऐतिहासिक घटना के आस-पास की सामयिकता में हिन्दी का उद्भव हुआ। बलात्कारी
घटनाओं से शंकित भारतीय कन्याओं की तरह 1191 ई. में मुहम्मद गौरी के
तराइन-युद्ध, 1398 ई. में तैमूर लंग के नर-संहार और 1519 ई. में बाबर के हमले
-जैसे अत्यंत दूषित वातावरण में हिन्दी का बालपन आगे बढ़ा। अंतस्तल की उदारता
और काया के लचीलेपन से हिन्दी जन-जन के हृदय में स्थान बनाती गई, तब भी 1526
ई. में मुग़ल वंश की स्थापना के साथ राजकाज की भाषा अधिकृत रूप से फ़ारसी हो गई
और आगे अनेक मुगलवंशी बादशाहों के काल में राजदरबार की भाषा और लिपि फ़ारसी ही
रही। मुगलों की छावनियों में जब हिन्दी की नई शैली के रूप में उर्दू का जन्म
और विकास हुआ तथा उसे राजदरबार की भाषा-जैसा दर्ज़ा दिया जाने लगा, तो उसकी भी
लिपि फ़ारसी ही रही।
1857 ई. की क्रांति के पश्चात् 1861 ई. में ईस्ट इण्डिया कम्पनी के
ब्रिटिश-तंत्र में समाहित होते ही करोड़ों भारतीयों की अनदेखी करते हुए
अंग्रेज़ी को ब्रिटिश-सरकार द्वारा भारत की राजभाषा घोषित कर दिया गया। 16वीं
शताब्दी के मध्य से जो संक्रमण शुरू हुआ था, वह 20वीं शताब्दी के मध्य तक चलता
रहा और लगभग 400 वर्षों तक हिन्दी राजकीय कोप का शिकार रही; उसका विकास
क्रूरतापूर्वक अवरुद्ध किया जाता रहा।
1947 ई. में देश की स्वतंत्रता के साथ ऐसा लगा कि स्वतंत्रता-संग्राम की वाणी
हिन्दी का अब नया सूरज उगने वाला है, किन्तु महज़ ढाई वर्ष बाद, जैसे ही 26
जनवरी 1950 को भारत का संविधान लागू किया गया; सारा स्वप्न धूल-धूसरित हो गया
और कहने के लिए तो अंग्रेज़ी को भारतीय संविधान में द्वितीय राजभाषा का स्थान
दिया गया; परन्तु भारत के ही सपूतों द्वारा व्यवहार में अंग्रेज़ी को राजकाज का
सिरमौर बनाकर हिन्दी को वंचित कर दिया गया। तब से स्वतंत्रता के विगत 66
वर्षों से इस देश की कन्याओं-युवतियों के प्रति दुराचार की समस्या के समान
हिन्दी के कंटकाकीर्ण मार्ग का प्रश्न अनुत्तरित चला आ रहा है।
शासन की ओर से भीतर-भीतर उपेक्षा और ऊपर से दिखावे की रुचि के साथ हिन्दी भारत
की राष्ट्रभाषा-राजभाषा और अनेक राज्यों की राजभाषा के रूप में संकुचित तो है;
किन्तु यह देश की अधिसंख्यक जनता की ज़बान की भाषा है तथा पूरे भारत में
अहिन्दी भाषी प्रदेशों के निवासियों द्वारा बड़े चाव से सम्पर्क-भाषा के रूप
में अपनाई जाती है। यह ताजिकिस्तान, उज्बेकिस्तान, मारिशस, फीजी, सूरीनाम,
ट्रिनिडाड, सीमावर्ती नेपाल आदि देशों में बोल-चाल की भाषा के रूप में व्यवहृत
होती है। बोल-चाल की दृष्टि से विश्व में इसका अंग्रेज़ी और चीनी के बाद तीसरा
स्थान है। जैसे बँटवारे के बाद धूर्त-चालाक बेटे अधिकांश माल-असबाब लेकर अलग हो
जाते हैं और बूढ़े माँ-बाप की सेवा-शुश्रूषा का दायित्व श्रवणकुमार-जैसा
सीधा-सादा बेटा सँभालता है, वैसे ही हिन्दी का सौम्य, मृदु मातृत्व
गरीब-अनपढ़-दलित-पीड़ित किन्तु सोंधी मिट्टी से जुड़े भारतीयों के हिस्से में
अधिक आता है। मुट्ठी भर उच्च वर्ग हिन्दी के श्वास से ही साँस लेकर जीता है;
किन्तु बाह्य भाषाई गुरुर में ऐंठा रहता है।
अंग्रेज़ी को भारत में सत्ता की सनक वाले अमीरों की कृत्रिम भाषा और गरीबों के
लिए अभिशाप कहना असंगत नहीं है; किन्तु हिन्दी तो यहाँ सबकी भाषा है-
ग़रीब-अमीर, अनपढ़-पढ़े-लिखे, शहरी-ग्रामीण, किसान-मज़दूर, शासक-प्रशासक,
व्यापारी, उद्योगपति, नेता, अफ़सर आदि सब की। मन-बेमन से कमोबेश इसे हर कोई
अपनाता है। भाषाओं में हिन्दी ही है, जो इस देश में सर्वात्मार्द्र है। ऐसे
में जब आज जन-शक्ति देश की शक्ति सिद्ध हो रही है और उद्योग, व्यापार, बाज़ार
आदि में जन-शक्ति को स्वीकार किया जा रहा है, तब देश की अभिव्यक्ति की प्रमुख
माध्यम हिन्दी को ग़रीबों-अनपढ़ों की भाषा कहना सर्वथा अनुचित है।
1000 वर्षों का संघर्ष और अनेक शासन-तंत्रों का विरोध झेलती आ रही हिन्दी आज
भी भिन्नता-भरे विशाल देश को प्राचीन तथा आधुनिक भारतीय भाषाओं जैसे संस्कृत,
तमिल, गुजराती, बंगला आदि के परस्पर आदान-प्रदान और सौहार्द से एक सूत्र में
पिरोने का काम करती है। इसे अनपढ़ों और ग़रीबों की भाषा न कहकर श्रम-शक्ति,
जन-शक्ति और भारत-जैसे महादेश का अंतर्जाल, रक्तवाहिनी और अंत:शक्ति कहना अधिक
उपयुक्त है। इसकी अभिव्यक्ति में जीने से इस देश को जो मौलिकता और गौरव मिल
सकता है, वह किसी अन्य भाषा से नहीं--
"अनपढ़ और ग़रीब की भाषा क्यों कहते हो है हिन्दी
सबके होंठों पर है फ़बती, सबके हित की है हिन्दी।"
गर्वीली भाषा हिन्दी की बाज़ार में भी भारी धमक
ज़िंदा या मुर्दा दफ़न कर दिया गया स्वाभिमान भी इतिहास के पन्नों पर अमिट छाप
छोड़ जाता है। जबकि लगभग 1000 वर्षों से कई शाही सल्तनतों, अंग्रेज़ी हुकूमत और
स्वतन्त्र भारत की विरोधी नीति लगातार झेलते रहने के बाद भी हिन्दी भाषा का
स्वाभिमान दबने, कमज़ोर पड़ने और काल के गाल में समा जाने के बजाय और अधिक
गर्वोन्नत होता चला गया। हिन्दी भाषा हज़ारों वर्षों से अखिल भारतीय चेतना का
प्रतिनिधित्व करती चली आ रही है। उसका साहित्य और वांड्मय अत्यंत विशाल,
श्रेयस और कालजयी है। लोक-जीवन के सही, सटीक प्रतिबिम्बन के कारण उसका
लोक-साहित्य बहुत समृद्ध है। लगभग 300 वर्षों तक आज़ादी की लड़ाई की जुझारू भाषा
होने और गांधी, सुभाष, भगत सिंह आदि बलिपंथियों का कंठगर्व होने तथा देश-विदेश
की एक प्रबल सम्पर्क-भाषा होने से हिन्दी भारत और उसके चौहद संसार की बड़ी
गर्वीली भाषा बन गयी है।
यदि इतिहास पर दृष्टिपात किया जाए तो आक्रान्ताओं, विक्रेताओं, मध्यस्थों आदि
की भाषा अधिक बाज़ारू और खनक-चमक वाली प्रतीत होगी। हिन्दी अपने जन्मकाल से
मानव-संवेदना, प्रकृति और मानव-जीवन के संतुलन पर विशेष ध्यान देती रही और
मोल-भाव-जैसे क्षेत्र की दक्ष माध्यम होकर भी बाज़ार वालों में उतनी प्रिय नहीं
रही, क्योंकि संस्कृत-पालि-प्राकृत-अपभ्रंश-हिन्दी का विकास स्वाभाविक और
प्रकृत लय में होता रहा तथा हिन्दी ने अपने टकसाली रूप-दर्प को आधुनिक बोध के
साथ निहारना तब शुरू किया, जब उसका सामना अंग्रेज़ी से हुआ। आगे चलकर नब्बे के
दशक से जब जनसंख्या के आधार पर विश्व में तीसरे स्थान पर हिन्दी भाषा-भाषियों
के बीच अपने माल की खपत पर दुनिया वालों का ध्यान गया, तो वे अपनी भाषा के साथ
हिन्दी भाषा में भी उत्पादन, विज्ञापन, मोल-भाव, बिक्री आदि का समूचा
बाज़ार-तन्त्र लेकर सामने आ गए और विगत दो दशकों से उनके द्वारा बढ़ाए पायदानों
पर बढ़ते हुए हिन्दी बाज़ार की सशक्त भाषा बन गई।
आज हिन्दी की राष्ट्रीय-अंतर्राष्ट्रीय बाज़ार-तंत्र में विशिष्ट पहचान है।
इसमें भारतीय महाद्वीप के निवासियों, उनकी आधुनिक होती जीवन-शैली और उनकी
दिनोंदिन बढ़ती क्रय-शक्ति का बहुत बड़ा हाथ है। अब कॉरपोरेट-जगत हिन्दी
भाषियों और उनकी भाषा की सम्पर्क-क्षमता का गणित समझ गया है। वह उनकी
क्रय-शक्ति को ध्यान में रखते हुए हिन्दी भाषा को बेहिचक अपने उद्योग-व्यापार
में शामिल करते हुए आगे बढ़ने लगा है। पोस्टर, पत्र-पत्रिकाओं, रेडियो, टीवी
आदि के हिन्दी-विज्ञापन और हिन्दी वेब-ऐड की अधिकता के रूप में आज के बाज़ार का
पृष्ठाधार इसका ज्वलंत उदाहरण है।
पर बाज़ार की भाषा होने से हिन्दी की राष्ट्रीय चेतना, साहित्यिक समझ, लोक-जीवन
की सुगंध, देश-विदेश के सम्पर्क-विस्तार आदि में कोई ख़ास कमी आ गई हो, ऐसा
नहीं है। जो कुछ परिवर्तन आया भी है, वह भाषा-हीनता का नहीं है, वह भारतीयों
की आधुनिक मानसिकता, नवीन चेतना और नवीन बोध से चालित है। पुराने और नए
मूल्यों के समंजन-असमंजन का दौर और तेज़ होता जा रहा है और उसका परिदृश्य
घर-परिवार से बाज़ार तक दिखाई दे रहा है। ऐसे में नोएडा, मुम्बई, चेन्नई,
कोलकाता, अहमदाबाद और अन्य शहरों में चहलकदमी करती हिन्दी यदि वाशिंगटन,
कैनबरा, बीजिंग, मास्को-जैसों की दृष्टि में छविमान सिद्ध हो रही है, तो
उसकी इस सफलता को न आँकना और उलटे व्यंग-प्रहार करना कतई उचित नहीं।
इसलिए हिन्दी भारतीय संघर्ष, साहित्य, लोक-जीवन, स्वतन्त्रता-संग्राम,
जन-सम्पर्क की अनोखी भाषा होने के साथ-साथ अगर पिछले लगभग 20-22 वर्षों से
बाज़ार में भी अच्छी पहचान रखने लगी है, तो उसके साथ गर्वहीनता की बात कहाँ से
आ गई। बल्कि कहना तो यह चाहिए कि वह यदि किसी क्षेत्र में कमज़ोर थी, तो अब
वहाँ भी सबल हो गई है। अतः ये कहना कि हिन्दी बाज़ार की भाषा है, गर्व की नहीं,
दिमाग से पैदल होने के अलावा और कुछ नहीं है। आज बिना क्रय-शक्ति के कोई भी
मानव-समाज सम्मान का जीवन नहीं जी सकता और बढ़ती क्रय-शक्ति वाले
हिन्दुस्तानियों को उनकी सारी गुणवत्ता को दर-किनार करते हुए सिर्फ़ बाज़ार के
नज़रिये से देखना ओछी मानसिकता के अतिरिक्त और कुछ नहीं। बल्कि विश्व-बाज़ार के
सुदीर्घ क्षेत्र में अपनाये जाने से हिन्दी के मान-सम्मान में बढ़ोत्तरी हुई है
और उसके अंतर्राष्ट्रीय स्वाभिमान की गर्दन और भी ऊँची हो गई है।
अंतत: जो भाषा साहित्य, लोक-साहित्य और जन-सम्पर्क की विश्वभाषा रही है, वह आज
विश्व-बाज़ार में भी भारी धमक के साथ आ खड़ी हुई है। वह केवल मूल
हिन्दी-क्षेत्रों की गर्वीली भाषा ही नहीं, देश-दुनिया के लगभग 120 करोड़
हिन्द-वासियों, देश-प्रेमियों और हिन्दी ज़बान के कायलों का कंठहार है। और अब
तो जैसे वह उन्नत, मुस्कान भरी मुद्रा के साथ हुलसते हुए यह आलाप कर रही हो
---
"आज खड़ी बाज़ार-भाव मैं देख रही दुनिया का
हिन्दी में मैं बेच रही अब माल-ताल दुनियावी।
पर नहीं कहीं कमतर हूँ मैं साधे सारे संवेदन
मैं गर्वीली, सहित भाव, सम्पर्क-सखी, युगभावी।"
हिन्दी के मुख्यधारा में आने की संभावनाएँ
1000 ई. के आस-पास जिन आधुनिक भारतीय भाषाओं का उद्भव हुआ, उनमें से सर्वाधिक
लचीली होने के कारण हिन्दी ने जो व्यापकता अर्जित की वह भारतीय भाषिक
परिप्रेक्ष्य में अनुपम है। जनसंख्या और भू-भाग दोनों दृष्टियों से हिन्दी
भारत की सर्वप्रमुख भाषा के रूप में उभरी। साहित्य और लोक-जीवन के क्षेत्र में
वह शीर्ष पर समादृत हुई। अपनी असाधारण लोकप्रियता के कारण उसे अनेक समृद्ध
भाषाओं के होते हुए लगभग दो-ढाई सौ वर्षों तक चले भारतीय स्वतंत्रता-संग्राम
की प्रमुख वाणी होने का गौरव मिला। स्वतंत्रता के बाद भारत की राष्ट्रभाषा एवं
राजभाषा के रूप में उसे प्रतिष्ठापित किया गया।
किन्तु क्या सैद्धांतिक और संवैधानिक धरातल से ऊपर उठकर हिन्दी वास्तव में
भारत की राष्ट्रभाषा और राजभाषा बन सकी ? क्या वास्तव में वह राष्ट्रीय जीवन
की मुख्यधारा का प्रतिनिधित्व करती है ? क्या आज की युवा पीढ़ी रोजगारोन्मुख
योग्यता के लिए हिन्दी की ओर देखती है ? उत्तर स्पष्ट है -- नहीं, बिल्कुल
नहीं। क्योंकि राष्ट्रभाषा हिन्दी के होते हुए हिन्दी-अहिन्दी समस्त भू-भागों
में भारत का जन-मानस संविधान में द्वितीय राजभाषा के रूप में उल्लखित अंग्रेज़ी
के प्रति व्यावहारिक दृष्टि से अधिक ललक रखता है। हर कोई अपने बच्चों का
दाखिला अंग्रेज़ी माध्यम के स्कूल में कराने को लोलुप रहता है। न केवल अहिन्दी
भाषी राज्यों में बल्कि हिन्दी भाषी राज्यों में भी बाबू-स्तरीय काम-काज के
ऊपर के समस्त राज-काज, शासन-प्रशासन, शिक्षा, व्यापार आदि के लिए अंग्रेज़ी को
ही उपयुक्त माना जाता है। यही कारण है कि आज की भारतीय युवा-प्रतिभा हिन्दी को
छोड़ अंग्रेज़ी की ओर भाग रही है। उसकी सामयिकता में रोज़ी-रोटी की प्रबल
संभावनाएँ अंग्रेज़ी माध्यम की दक्षता में अधिक दिखाई देती हैं। इन्हीं कारणों
से भाषा और लिपि दोनों रूपों में सशक्त होते हुए भी हिन्दी दिनोंदिन भारतीय
जीवन और उसके विकास की मुख्यधारा में अंग्रेज़ी की अपेक्षा कमज़ोर पड़ती जा रही
है।
फिर भी हिन्दी के मुख्यधारा में आने की संभावनाएँ बराबर बनी हुई हैं। आज़ादी के
पूर्व और आज़ादी के बाद हिन्दी के लिए जितने भी प्रयास हुए जैसे कि 'हिन्दी
साहित्य सम्मलेन प्रयाग', 'नागरी प्रचारिणी सभा काशी', 'केन्द्रीय राजभाषा
समिति', विभिन्न हिन्दी विश्वविद्यालयों आदि के प्रचार-प्रसार-तन्त्र तथा
केन्द्र और विभिन्न राज्यों के शिक्षा-परिषदों द्वारा 10 वीं या 12 वीं कक्षा
तक हिन्दी को अनिवार्य विषय किए जाने का प्राविधान या फिर भारतीय संविधान के
343 वें अनुच्छेद में हिन्दी को दिए गए राजभाषा के पद आदि से हिन्दी को जो
राष्ट्रव्यापी अपनत्व मिला, उसमें सबसे बड़ी बाधा संविधान में अंग्रेज़ी को
द्वितीय राजभाषा के रूप में दिए प्रतिद्वंदी स्थान से आ खड़ी हुई। आज़ादी के
विगत 66 वर्षों में हिन्दी दिवस-सप्ताह-पखवाड़े के रूप में हिन्दी की
अर्चना-वन्दना का राजकीय आयोजन तो किया जाता रहा, किन्तु उच्च वर्ग द्वारा
हिन्दी को काम-काज के लिए कब और कहाँ अपनाया गया ? साल-दर-साल अग्रेंजी का ही
वर्चस्व बना रहा।
इसलिए इस समस्या का केन्द्रक और हल की कुंजी दोनों भारतीय संविधान में निहित
हैं। यदि अंग्रेज़ी को संविधान की 8वीं अनुसूची में संशोधन कर विदेशी भाषा-
सूची में डाल दिया जाए और उसे अंतर्राष्ट्रीय सम्पर्क की भाषा घोषित करते हुए
राजभाषा के रूप में हिन्दी को निर्द्वंद्व प्रतिष्ठापित कर दिया जाए तो भारत की
भाषिक चेतना की स्थिति रातों-रात बदल सकती है। कुछ ही वर्षों में देश से
प्रतिभाओं का असीम पलायन संतुलित हो सकता है। विज्ञान, चिकित्सा, कृषि,
उद्योग, यातायात आदि महत्वपूर्ण क्षेत्रों में मौलिक रूप में देश की आविष्कारक
क्षमता बढ़ सकती है। भारत की विकास-दर विश्व को चौंकाने वाली अभूतपूर्व ऊँचाई
नाप सकती है।
जहाँ तक अंतर्राष्ट्रीय संपर्क की बात है तो उसके लिए न केवल अंग्रेज़ी, बल्कि
फ्रेंच, जर्मन, रुसी, चीनी, फ़ारसी-जैसी अनेक भाषाओं की आवश्यकता है और हमारे
यहाँ अनेक विदेशी भाषाओं की शिक्षा एवं प्रवीणता के लिए विदेशी भाषा-संस्थानों
तथा विभिन्न विश्वविद्यालयों में डिग्री-डिप्लोमा-कोर्स की अनेकानेक
व्यवस्थाएँ हैं। प्रतिवर्ष अंतर्राष्ट्रीय संपर्ककर्ताओं तथा अनुवादकों की
अच्छी खेप तैयार होती है और देश का अंतर्राष्ट्रीय संबंध समृद्द होता है।
अन्यथा 66 वर्षों से न्याय संगत, राजनैतिक इच्छा शक्ति के अभाव में
राष्ट्रभाषा हिन्दी के प्रति छलावे का वातावरण चला आ रहा है। अब तो उच्च वर्ग
बोल-चाल को छोड़ लेखन में हिन्दी-देवनागरी का प्रयोग करता ही नहीं। अब तो आम
आदमी भी अपने बच्चे की शिक्षा की लिए अंग्रेज़ी-माध्यम की ही बात करता है। ऊपर
से हिन्दी दिवस-सप्ताह-पखवाड़े का आयोजन हिन्दी की रही-सही चेतना को फूल-मालाओं
से लादकर फूलकर कुप्पा होने का मात्र क्षणिक आह्लाद देता है और अंग्रेज़ी साल
भर की दौड़ में फिर आगे बढ़ जाती है। और भारतेंदु हरिश्चंद्र का यह कथन जिसे न
सुनने के लिए देश के नियंताओं ने अपने दोनों कान जबरन बंद कर रखें हैं, हमें
बहुत-बहुत याद आता है -
"निज भाषा उन्नति अहै सब उन्नति को मूलI"
समलैंगिकता पर संसद की वैधानिकता
समलैंगिकता से सम्बन्धित धारा-377 को समाप्त करने की पुनर्विचार याचिका को
उच्चतम न्यायालय ने ख़ारिज़ कर दिया है। भारतीय जन-जीवन के आचार-व्यवहार को
ध्यान में रखते हुए न्यायालय ने बहुत अच्छा किया है। भारतीय दंड संहिता से
धारा-377 को हटा देने से संसर्ग संबंधी विकृति को सर्वजनीन मान्यता मिल जाती।
मानव-जीवन की जितनी भी बुराइयाँ हैं, उनकी जड़ें कितनी ही गहरी क्यों न हों,
उनका चलन कितना ही प्राचीन क्यों न हो, पर आज तक भारतीय समाज द्वारा उन्हें
सार्वजनिक रूप से कभी भी मान्यता नहीं दी गई।
पश्चिम में समलैंगिकता को मान्यता मिल जाने का अभिप्राय यह नहीं है कि दुनिया
के दूसरे हिस्सों में उसे स्वीकार कर लिया जाए। जीभ और जाँघ की संवेदनाओं को
लेकर पश्चिम ने प्रयोगों की अति कर दी है। वैवाहिक जीवन से जब उनका मन नहीं
भरा तो समारोहपूर्वक उन्होंने नाइट-क्लबों में कुछ समय के लिए पत्नियों की
अदला-बदली का खेल खेला। आगे चलकर वे खुलकर फ्री सेक्स पर उतारू हो गए। फिर भी
भोग को लेकर प्रयोग-पर-प्रयोग करने का उनका दुस्साहस न तो कभी थमा और न ही वे
कभी तृप्त हुए। विवाहेतर सम्बन्ध उनके लिए सामान्य-सी जीवन शैली है। उनकी
विकृत इच्छाएँ किसी सीमा को कहाँ मानने वाली थीं ? फलतः वेबसाइट आदि के सहारे
सुकुमार कमसिन लड़कियों को शिकार बनाने की हवस देश-दुनिया में फैलने लगी। आगे
चलकर सारी सीमाएँ तोड़ते हुए वे समलैंगिकता तथा पशुपरक सम्भोग पर उतर आए। आज
ऐसी सभी शारीरिक और मानसिक विकृतियों को वे पूरी दुनिया में फैलाना चाहते हैं
और भारतीय समाज को भी अपने लपेटे में लेना चाहते हैं।
यह पूरब और पश्चिम सभी जानते हैं कि तेजी से फ़ैलने वाली एड्स-जैसी घातक बीमारी
को बढ़ावा देने में स्वतन्त्र शारीरिक सम्बन्ध और समलैंगिकता-जैसी विकृतियों का
बहुत बड़ा हाथ है। पश्चिम में विकृत भोगेच्छा और उससे सम्बन्धित दुष्प्रयोग
रुकने का नाम नहीं ले रहे हैं; किन्तु भारतीय समाज में आज भी विवाह-संस्था की
दृढ़ता के कारण आदर्श प्राकृतिक संसर्ग, चारित्रिक गरिमा, पारिवारिक सम्बन्धों
और रक्त संबंधों की शुद्धता का विशेष महत्तव है। ऐसे में पश्चिम की मान्यताओं
को आधार बनाकर भारतीय समाज, यहाँ के न्यायालय अथवा संसद द्वारा समलैंगिकता को
मान्यता दिया जाना कतई उचित नहीं है।
भारतीय समलैंगिक पश्चिम का हवाला देते हुए अनेक कुतर्कों का सहारा लेते हैं,
जो भारतीय दृष्टिकोण और तार्किकता के निकष पर खरे नहीं उतरते; जैसे कि-
1. समानता का अधिकार; किन्तु समानता का यह अभिप्राय नहीं कि
नाक, आँखें, मुख आदि को सपाट करते हुए चेहरे को समतल बना दिया जाए। पर्वत और
समुद्र समान तल में समतल नहीं किए जा सकते। इसलिए प्राकृतिक भेद-विभेद पर
समानता का अधिकार लागू नहीं किया जा सकता। संविधान में भी आरक्षित वर्ग,
अल्पसंख्यक वर्ग, क्षेत्रीय विशेषाधिकार आदि पर समानता का अधिकार कहाँ लागू
होता है ?
2. स्वतंत्रता का अधिकार; किन्तु स्वतंत्रता का मतलब यह नहीं
कि यदि विकृत भोगेच्छा लैंगिक-यौनिक सीमाएँ नहीं समझती और प्रकृति के विरुद्ध
शरीर के सभी द्वारों के उपयोग-सम्भोग में अंतर नहीं मानती तो उसे देश भर में
बेलगाम धमा-चौकड़ी के लिए स्वच्छंद छोड़ दिया जाए। समस्त भारतीय समाज के जीवन को
खुले तौर पर गन्दा करने की मान्यता कैसे दी जा सकती है ?
3 . समलैंगिकता का आदिम काल से प्रचलन;
किन्तु प्राचीनता और प्रचलन में केवल समलैंगिकता ही नहीं है। चोरी,
दस्युवृत्ति, हत्या, बलात्कार आदि ऐसे अनेक अपकर्म हैं, जो प्राचीन काल से
प्रचलित हैं, तो क्या मात्र प्राचीनता और प्रचलन के कारण राज्य और समाज द्वारा
इनके प्रतिबन्धों को लेकर किए गए सारे उपायों को समाप्त कर देना चाहिए ? ..कतई
नहीं।
4. काम का पुरुषार्थ और खजुराहो आदि की मैथुन-मूर्तियाँ;
किन्तु काम का मार्ग भी आराधना की तरह प्रकृति के अनुरूप तथा सात्विक होना
चाहिए। काम मानव-सृष्टि का नियामक है, उसका भक्षक नहीं। आखिर, तमाम बाहरी
परिदृश्यों से होकर जब हम ऐसे मंदिरों के भीतर गर्भगृह तक पहुँचते हैं, तो
वहाँ परात्पर शिव के ही दर्शन होते हैं।
अन्ततः उच्चतम न्यायालय द्वारा जिस प्रकार एक नहीं, दो बार भारतीय जन-जीवन,
उसकी सामूहिक चेतना, मानसिकता और चरित्रादर्श का ध्यान रखा गया तथा विवेकपूर्ण
न्याय से भारतीय जन-जीवन के कल्याण की प्रतिष्ठापना की गई, उसी प्रकार अवसर
आने पर भारतीय संसद को भी इस शारीरिक-मानसिक विकृति को मान्यता देने से इन्कार
करना होगा। आवश्यकता की स्थिति में भारतीय समाज के कल्याण के प्रति संसद की
वैधानिकता भी अपेक्षित है।
लैंगिक-यौनिक विकृति
: राज्य और समाज का कर्तव्य
शारीरिक-मानसिक विकलता प्रकृति का ऐसा कष्टकारक अभिशाप है, जिसे व्यक्ति देश
और समाज का उपयुक्त सामंजस्य न मिलने पर आजीवन भोगने के लिए विवश होता है।
मूक, बधिर, नेत्रहीन, हाथ-पाँव से अपंग आदि विकलांगों के सामान्य जीवन के लिए
राज्य और समाज द्वारा अनेक प्रयास किए जाते हैं, किन्तु लैंगिक-यौनिक विकृति
से ग्रस्त व्यक्तियों के जीवन को सामान्य बनाने और उन्हें मुख्य धारा में लाने
का कोई समुचित उपाय अभी तक हमारे देश में नहीं किया गया है। एक तो ऐसी विकृति
प्रारम्भ में माता-पिता और परिवार द्वारा छिपाई जाती है तथा ऐसे बच्चों को
उनकी हाल पर छोड़ दिया जाता है; दूसरे तथ्य उजागर होने पर परिवार द्वारा ऐसी
संतानों को पहले से ही सामाजिक दूरी का अभिशाप भोग रहे किन्नरों की जमातों को
हमेशा के लिए सौंप दिए जाने का प्रचलन भारतीय समाज में हावी रहा है। आगे चलकर
ऐसे बच्चे किन्नरों की जीवनगत विसंगतियों का हिस्सा बन जाते हैं और माता-पिता,
परिवार तथा सामान्य समाज से सदैव के लिए दूर हो जाते हैं।
इधर 11 दिसंबर, 2013 को समलैंगिकता को दंडनीय अपराध बतानेवाला उच्चतम न्यायालय
का फैसला आया नहीं कि पश्चिमी देशों और उनकी अतिवादी जीवन-शैली से
प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष रूप से समर्थित भारतीय समलैंगिक संसद पर दण्ड संहिता की
धारा 377 को निर्मूल करने का दबाव बनाने पर उतारू हो गए हैं। उनकी ओर से उच्चतम
न्यायालय में दायर पुनर्विचार याचिका भी 28 जनवरी 2014 को ख़ारिज हो चुकी है।
इस मुद्दे पर संसद की रहनुमाई की आख़िरी चौखट अब और प्रभावशाली हो गई है।
वोट-बैंक की राजनीति का शिकार होने के कारण राजनेताओं से धारा 377 को बरकरार
रखने की तनिक भी आशा रखना व्यर्थ है, जिसका भारतीय दण्ड-विधान में बने रहना
वर्तमान मानवीय सांसर्गिक विषमताओं के कारण अत्यंत आवश्यक है। उक्त धारा के
निर्मूल हो जाने से देश एक ऐसा सांस्कारिक सुरक्षा-विधान खो देगा, जिससे अनेक
वैकल्पिक एवं अनर्गल शारीरिक संसर्ग, यौनिक विसंगितियों, घातक बीमारियों तथा
लैंगिक-यौनिक सुख की जटिल अपसंस्कृति का समाज में बोलबाला हो जाने की प्रबल
आशंका है।
तो फिर उपाय क्या है ? देश, समाज, किन्नरों और भारतीय संस्कृति सब के पक्ष का
संतुलन साधते हुए आखिर क्या किया जाना चाहिए ? किन्नरों में अपनी लैंगिक-यौनिक
विकृति, एकाकी जीवन, समाज से कट जाने तथा माता-पिता, परिवार और समाज के
स्नेह-सम्मान से वंचित हो जाने का भारी दर्द होता है। उनके पेट पालने की
समस्या भी कम विकट नहीं होती। इस प्रकार वंचित कष्टमय जीवन, बेरोज़गारी और
लैंगिक-यौनिक विसंगति के त्रिकोण में उनके द्वारा अपने-जैसों के साथ मिलजुलकर
जीवन-यापन की लालसा अस्वाभाविक नहीं है। किन्तु यदि उनके द्वारा अन्य रूप में,
वैकल्पिक, अप्राकृतिक सम्बन्ध अनेक विसंगतियों और अपसंस्कृति को जन्म दिया
जाता है, तो वह सुसंस्कृत समाज के उपयुक्त नहीं है। इसके समाधान के लिए हमें
ऐसी वैयक्तिक जीवनियों का प्रासंगिक संग्रह तैयार करना चाहिए, जिससे उनके
आचार-विचार के आधार पर व्यावहारिक संहिता बनाकर प्रेरणात्मक तरीके से
सुधार-संस्कार का वातावरण संबन्धित अपेक्षितों-उपेक्षितों के बीच प्राभावशाली
तरीके से फैलाया जा सके।
इस उपक्रम में, आइए एक विहंगम दृष्टि डालते हैं, तन-मन से सक्षम होते हुए भी
विवाहित जीवन से दूर एकाकी जीवन को देश और समाज को समर्पित करके अपने
जीवन-क्रम से जिजीविषा और जीवन-संघर्ष का नया यथार्थ रचनेवाले और इसी
सामाजिकता से उपजे बानगी के तौर पर कुछ स्वनामधन्य व्यक्तित्वों की, जिनकी
अमिट उपस्थिति समय की शिला पर अंकित है; जैसे कि सुमित्रानंदन पन्त, स्वामी
विवेकानंद, डॉ. ए.पी.जे. अब्दुल कलाम, मदर टेरेसा, अटल बिहारी वाजपेयी आदि। ये
सभी जीवट के धनी ऐसे व्यक्तित्व हैं, जिन्होंने अपने जीवन की अनेक वंचनाओं को
भारतीयता के महान संवाहक के रूप में सकारात्मक उपलब्धि और सुनाम सच्चरित्रता
में तब्दील कर दिया। इनके जीवन-सार से यही ध्वनि आती है कि युगल जीवन को अपनाए
बिना एकल जीवन को भी देश और समाज के अनुकूल अपने श्रम, लगन तथा कृतित्व से
वरदान में बदला जा सकता है।
कविवर सुनित्रानंदन पन्त प्रकृति सहचरी से संलाप, उससे छाया-प्रेम और उसी के
प्रति शब्द-साधना के लिए जाने जाते हैं। अविवाहित जीवन पर बार-बार कुरेदे जाने
पर प्रकृति-प्रेमी पन्त का उत्तर कुछ इस प्रकार सामने आता है ---
"छोड़ द्रुमों की मृदु छाया
तोड़ प्रकृति से भी माया
बाले, तेरे बाल-जाल में
कैसे उलझा दूँ लोचन ?"
अर्थात्, हे सुन्दरी, मैं वृक्षों के सुरम्य छतनार वातावरण को त्यागकर और
प्रकृति के अपनत्व से अलग होकर ( उससे प्रेम-सम्बन्ध का विच्छेद करके )
तुम्हारी केश-राशि के सौन्दर्य के धोखे में अपनी आँखों को कैसे फँसा सकता हूँ
? ( ये आँखें तो प्रकृति की अच्छाभा के लिए हैं )। और पन्त प्रकृति-सुन्दरी से
आजीवन प्रेम करते रहे, अपने शब्दों में उसका अभिराम रूप-स्वरूप उतारते रहे,
उससे निसर्ग, जीवन और दर्शन की बातें करते रहे; आजीवन कुमार रहकर प्रकृति के
साथ लिया हुआ उसके प्रति एकनिष्ठ प्रेम का व्रत निभाते रहे। स्वामी विवेकानंद
की माँ उन्हें गृहस्थ-जीवन के आकर्षणों की ओर प्रेरित कर-करके हार गईं। वे
स्वयं अपनी जिज्ञासाओं के साथ सच्चे ज्ञान की खोज में वर्षों बेचैन रहे। अंतत:
रामकृष्ण परमहंस के शिष्यत्व में उन्हें परम सत्य का आभास हुआ और महा प्रकाश
की ओर उन्मुख हुए। और फिर उनके जीवन-लक्ष्य, साधना तथा कर्मक्रांत
संन्यासी-जीवन की महायात्रा को कौन नहीं जानता ?
भूतपूर्व राष्ट्रपति डॉ. ए.पी.जे. अब्दुल कलाम ऐसे व्यक्तित्व हैं, जिन पर
समस्त भारत-वासियों को अपार गर्व है। वे दाम्पत्य जीवन से दूर एकाकी जीवन की
वंचना को वैज्ञानिक, राजनय और वैचारिक जीवन की महान उपलब्धि के रूप में बदल
देने के एक अनोखे उदाहरण हैं। अपनी निजता को सर्वजनीन जीवन से दूर वे देखते ही
नहीं। देश-दुनिया और उसके सुख-दुःख से हमेशा अपने-आप को जोड़े रखते हैं। एकाकी
जीवन के साथ वे आजीवन कभी अकेले नहीं रहे। आखिर, उनके पास ऐसा क्या-कुछ है,
जिससे वे पूरी दुनिया, पूरी मानवता को अपना बनाकर रखते हैं ? इस प्रश्न के
उत्तर में एकाकी जीवन को अविरल संसार बनाते और उस संसार में डूबते-उतराते,
ऊभ-चूभ होते उनके निजी विचार उन्हीं के शब्दों में कुछ इस प्रकार हैं --
"I'm not a handsome guy
But। can give my
Hand to someone
Who needs help. "
अर्थात्, मैं ( दिखने में ) अच्छा आदमी (सुन्दर-सा लड़का) नहीं हूँ, लेकिन किसी
भी ज़रूरतमंद को मदद का अपना हाथ दे सकता हूँ ( उसके लिए मेरा हाथ हमेशा बढ़ा
हुआ है )। यहाँ ध्यान देने की बात यह है कि कलाम साहब ने रंग-रूप, कद-काठी और
उम्र के लिहाज से आकर्षक होने की अपेक्षा सहृदयता, मैत्री और सहायता-सद्भाव को
अधिक महत्त्व दिया है। उन्होंने दैहिक सौन्दर्य और उसके आकर्षण को विस्फारित
नेत्रों से न देखकर सामान्य दृष्टि से देखा है और मनुष्यों में परस्पर सहयोग
और सम्प्रदान की भावना को मानवता का नियामक होने का संकेत किया है, जबकि संसार
में मानव जाति का अधिकांश हिस्सा भौतिक आकर्षण-विकर्षण के फेर में पड़ा हुआ है।
मदर टेरेसा ने किसी दैहिक संतान को जन्म नहीं दिया। पर अपने हृदय के विस्तार
से समूची मानवता के लिए ममता और सहानुभूति की सलिला प्रवाहित करके संसार की
माँ हो गईं। उनका पूरा जीवन दीन-हीन, पीड़ित, असहाय लोगों की सेवा-सुसूर्षा और
उनके आँसू पोछने में बीत गया। इसी प्रकार भूतपूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी
वाजपेयी सार्थक एकल जीवन के ऐसे शलाका पुरुष के रूप में याद किए जाएँगे, जो
किशोरवय से वृद्धावस्था तक सर्वजन-हितार्थ की साँसें लेते रहे और अविवाहित
जीवन को चुना ही इसलिए कि अहिर्निश सब के लिए जीने में कोई बाधा न हो।
तो फिर युगल जीवन के अभाव में एकल जीवन को भारी-भरकम बोझ मानते हुए विकृत
शारीरिक सम्बन्ध की ज़िंदगी के अलावा भी दुनिया में बहुत कुछ है और लगभग वह सब
है, जिसकी बदौलत सुमित्रानंदन पन्त, स्वामी विवेकानंद, डॉ. ए.पी.जे. अब्दुल
कलाम, मदर टेरेसा, अटल बिहारी वाजपेयी-जैसी हस्तियाँ देश-दुनिया में अपना
छाप छोड़ती हैं। बशर्ते, सबसे पहले उनके द्वारा एकजुट होकर घिनौने, वैकल्पिक
शारीरिक संबंधों को त्याग देने का संकल्प लिया जाना चाहिए। फिर, जहाँ तक
पारिवारिक-सामाजिक घटकों और राज्य द्वारा उनके विकास और मान-सम्मान की
प्रतिष्ठापना में पूरे मन से सहयोग की परम्परा न होने की बाधा है, तो आज की
लोकतांत्रिक व्यवस्था में उस पर पुनर्विचार किए जाने और कारगर योजना बनाकर उसे
सख्ती से लागू किए जाने की नितांत आवश्यकता है।
और अंतत: व्यूह-भेदक समाधान यह कि जैसे मूक, बधिर, नेत्रहीन, हाथ-पाँव से
अपंग आदि विकलांगों के लिए विकलांगता का राजकीय प्रमाणपत्र चिकित्सा-विभाग
द्वारा जारी किया जाता है, उन्हें अनेक सुविधाएँ दी जाती हैं; उसी प्रकार
लैंगिक-यौनिक विकृति का पता चलते ही माता-पिता के माध्यम से अविलंब आवेदन किया
जाना चाहिए और ऐसे बालक-बालिकाओं को राज्य द्वारा अपेक्षित प्रमाणपत्र प्रदान
करने की व्यवस्था की जानी चाहिए। यह राज्य और समाज का कर्तव्य बनता है कि ऐसे
बालक-बालिकाओं की पहचान से लेकर समस्याओं के समाधान तक के समुचित उपाय किए
जाएँ। इसके लिए उन्हें शिक्षा, प्रशिक्षण, व्यवसाय, नौकरी आदि क्षेत्रों में
अपेक्षित सुविधाएँ देकर मुख्य सामाजिक धारा में शामिल करने में अब और देरी
करना कतई ठीक नहीं है। माता-पिता, परिवार, समाज और शासन द्वारा जैसे आज एड्स
रोगियों के लिए मुहिम चलाई जा रही है, वैसे ही ऐसे बच्चों के लिए भी सभी के
द्वारा हृदयहीनता दूर की जानी चाहिए और उन्हें कभी भी अपने से अलग न होने देना
चाहिए, बल्कि उन्हें पढ़ा-लिखाकर, अच्छी तरह शिक्षित-प्रशिक्षित करके विभिन्न
कार्य-क्षेत्रों में स्थापित होने में भरपूर इच्छा-शक्ति से, तन-मन-धन से सहयोग
किया जाना चाहिए। तभी भारतीय समाज सब का होगा और सब को साथ लेकर आगे बढ़ सकेगा।
आखिर, महाभारत मेँ शिखंडी का जीवन भोंडे नाच-गान और विकृत जीवन का सेंदेश नहीं
देता, उसका चरित्र तत्कालीन समाज का कितना अविछिन्न तथा महत्त्वपूर्ण चरित्र
है, जो उस युग के परिवर्तनकारी युद्ध से भीष्म पितामह-जैसे योद्धा को हटा देने
का अभूतपूर्व योगदान देकर युद्ध की दिशा बदल देता है।
भारत में समलैंगिकता और उससे जुड़ी चार दिक्कतें
पहली दिक्कत तो यह है कि पश्चिम में कुछ बड़े-बड़े फिल्मकारों, नामी-गिरामी
गायक-गायिकाओं, विश्वप्रसिद्ध खिलाड़ियों, नामचीन शासकों-प्रशासकों, विख्यात
पत्रकारों-साहित्यकारों आदि तक को समलैंगिकता की आदत पड़ चुकी है और वहाँ की आम
युवा पीढ़ी की कुछ जनसंख्या समलैंगिकता के फ़ैशन के गिरफ़्त में बड़ी तेज़ी से आती
जा रही है। आज-कल त्वरित मीडिया के चलते दुनिया के अन्य हिस्सों में भी इस
फ़ैशन का चलन तेज़ी बढ़ रहा है। यही कारण है कि आदिम युग से जन्मी, किन्तु समाज
द्वारा त्याज्य और छिप-दबे, अपवाद रूप में प्रचलित समलैंगिकता आज हमारे देश में
भी अपना अधिकार माँगने की स्थिति में आ गई है। इंटरनेट का करामात है कि
हमें-आप को यह पता नहीं कि हमारे आस-पास के कौन-कौन लोग समलैंगिकता को पसंद
करते हैं। समस्या को हम जिताना आँक रहे हैं वह फिल्मों, टीवी, कम्प्यूटर,
लैपटॉप, नोटपैड, मोबाइल आदि के चलते उससे कई गुना अधिक गंभीर है।
दूसरी दिक्कत यह कि समलैंगिकता की गिरफ़्त में कुछ महिलाएँ भी हैं। पश्चिम के
कुछ दम्पतियों में जननागों के सहज सम्मेल से हटकर अनेक अनर्गल दुष्प्रयोग
अपनाने का रिवाज-सा हो गया है। वहाँ की कुछ नारियाँ भी ऐसी अजीबोग़रीब हैं कि
इस सब में बढ़-चढ़कर पुरुषों का साथ देती हैं। वहाँ तब भी तृप्ति संतोष नहीं
मानती। तलाक और विवाह का सिलसिला उनके जीवन में बुढ़ापे तक नहीं थमता।
'एक्स'-पति-पत्नियों की फ़ेहरिस्त लम्बी होती जाती है। साथ ही विवाह पूर्व या
अविवाहित रहकर शारीरिक सम्बन्धों का अनगिनत सिलसिला उनकी लैंगिकता-समलैंगिकता
का पूर्वार्द्ध होता है। कुत्सित स्त्री-पुरुष यौनिक असंतोष की कुंठा में
नन्हें मासूम बच्चों तक को शिकार बनाते हैं।
तीसरी दिक्कत यह कि समलैंगिकता में केवल समलैंगिकता ही नहीं है; समलिंगी
दुष्प्रयोगियों की अतृप्त वासना पशुओं को भी नहीं छोड़ती। पश्चिम ने त्याग-भोग
का संतुलन न साध कर सिर्फ़ भोग और भोग की राह पकड़ी हुई है तथा वे अपने-जैसा
सारी दुनिया को बनाना चाहते हैं। लैंगिक-यौनिक रूप से विकृत किन्नरों की बात
महज़ एक बहाना है। इस बहाने से समलिंगी अपने सारे कुकर्मों को मान्यता दिलाना
चाहते हैं। जहाँ तक किन्नरों की बात है तो उन्हें स्वस्थ सामाजिक मार्ग पर
चलकर श्रेयस जीवन और श्रेयस कार्यों को अपनाना चाहिए। नृत्य, गायन-वादन आदि
कलाओं की साधना की उनकी परम्परा हमारे देश में पहले से रही है। कार्य तथा
प्रतिभा के और तमाम रास्ते खुलते जा रहे हैं।
चौथी दिक्कत यह कि समलिंगियों की सीमाएँ केवल दैहिक जननागों तक सीमित नहीं
रहतीं। वे और उनके बाज़ारू पार्टनर उनके लिए तमाम भौतिक इंस्ट्रूमेंट बाज़ार में
उतार चुके हैं। सस्ते-मँहगे दामों में देश-दुनिया के विभिन्न हिस्सों में ऐसे
इंस्ट्रूमेंट की बिक्री बढ़ रही है। सेक्स मानव-जीवन का ऐसा संवेदनशील विषय है
कि जिज्ञासावश आम नागरिक भी भौतिक इंस्ट्रूमेंट, ड्रग्स तथा रसायनों के चक्कर
में तेज़ी से फँस रहा है। प्रिंट और इलेक्ट्रॉनिक मीडिया में निर्लज्ज, वयस्कों
के लिए दर्शनीय, किन्तु बाल-वृद्ध, सब की निगाहों को बेहयाई से परोसे गए
विज्ञापनों की बाढ़-सी आई हुई है।
और ये चारों दिक्कतें आज हमारे यहाँ हज़ारों-हज़ार दिक्कतें पैदा कर रहीं हैं,
जिनमें सबसे बड़ी दिक्कत यह है कि पश्चिमी झोंके से चली इन सारी दिक्कतों का
सामना आज भारत-जैसे नैतिक मान्यताओं वाले देश को भी करना पड़ रहा है। क्योंकि
अब पश्चिम की तर्ज़ पर हमारे देश की ख्याति में सितारों की तरह चमकते कुछ
फिल्मकारों, गायक-गायिकाओं, खिलाड़ियों, शासकों-प्रशासकों, साहित्यकारों,
पत्रकारों आदि में भी समलैंगिकता की आदत बढ़ रही है। देश के कुछ बच्चे,
नौजवान-नवयुतियाँ, वयस्क और बुजुर्ग यदि उन्हें मॉडल मानते हैं, तो आज के समाज
पर चाल-चलन का असर भी तो उन्हीं का होना है।
महामारियों से मुक्ति पाने का दूरगामी उपाय
प्रकृति ने कोरोना वायरस के माध्यम से अभिनव मनुष्य के भारतीय तथा वैश्विक
जिजीविषा को जनसंख्या नियंत्रण की नवीन दृष्टि इस चेतावनी के साथ दे दी है कि
यदि पृथ्वी की गोद में जन्मते-पलते जीव-जंतु, पेड़-पौधे, नदी-निर्झर,
समुद्र-पहाड़ आदि की रक्षा किए बिना तुम्हारा अतिरेकी धृतराष्ट्रीय मद और
भोग-विलास असुंतलन-ही-असुंतलन का नियामक है, तो हमें ही यदा-कदा कोई-न-कोई
अस्त्र-शस्त्र उठाना होगा।
जैसे-जैसे जीवन और जीने की आवश्यकता के विरुद्ध वैभव के अतिचार में चार-छह
सदस्यों के परिवार के लिए चालीस-पचास कमरों के भवन बनने लगे, जैसे-जैसे
धनाड्यता की ऊँचाइयों ने वस्त्राभूषणों, विलासक वस्तुओं, यातायात के संसाधनों
आदि के पहाड़-के-पहाड़ खड़े करने शुरू कर दिये, जैसे-जैसे विज्ञान धरती-आकाश के
प्रति किसी नैतिक अंकुश के बिना भोगों की मरीचिकाएँ जुटाने में लग गया;
वैसे-वैसे जल-थल-नभ पर अभिनव मनुष्य का आधिपत्य बढ़ता गया और वह घोर अप्राकृतिक
जीवन का अभ्यस्त होता चला गया, वैसे-वैसे अन्य चर-अचर प्राणियों, वनस्पतियों
आदि के क्षेत्र कम-से कम होते गए और हर कहीं द्विपायी जनसंख्या फैलती गई;
किन्तु प्रकृति का ममतामयी आँचल केवल मनुष्य के लिए नहीं है। उस पर समस्त
चराचर प्राणियों का अधिकार है।
आश्चर्य है कि अधुनातन युग तक आते-आते मनुष्य ने ऐसा कोई सम्यक अध्ययन-शोध
क्यों नहीं पूरा किया कि हर छोटे-बड़े क्षेत्र, गाँव-गढ़ी-मुहल्ले,
शहर-नगर-महानगर, परिक्षेत्र, वनप्रांत, पहाड़ी क्षेत्र, द्वीप, द्वीप-समूह,
भूभाग, देश-राष्ट्र आदि के क्षेत्रफल के लिए सर्वथा उचित और अनुकूल जनसंख्या
कितनी होनी चाहिए! प्राकृतिक संतुलन एवं औचित्य के परिप्रेक्ष्य में सम्पूर्ण
विश्व की मानव-संख्या आखिर कितनी होनी चाहिए ? अन्य प्राणियों की संख्या
प्रकृति की विनाशक लीला में स्वत: संतुलित होती रहती है, क्योंकि उनके पास
जन्म-दर बढ़ाने और मृत्यु-दर रोकने का मनुष्य-जैसा कोई चिकित्सा-विज्ञान तो है
नहीं; किन्तु मानवजाति ने अपनी मेधा और वैज्ञानिक शक्ति का प्रयोग प्राय: अपनी
महत्त्वाकांक्षा के लिए किया है। वह अन्य जीवधारियों और उनके क्षेत्र का संहार
करते हुए सदैव अपनी समूह-संख्या बढ़ाने में ही लगा रहा है। कदाचित उसने
जल-थल-नभ के समस्त क्षेत्रों का आकलन करके विज्ञान की अद्भुत शक्ति का प्रयोग
प्रकृति से सामंजस्य स्थापित करते हुए मानव जन्म-दर तथा मृत्यु-दर के संतुलन
में भी किया होता।
यदि अब भी मनुष्य ने संतुलन की राह नहीं पकड़ी तो पचास-पचास लेन की पक्की सड़कें
भी भविष्य में कम चौड़ी पड़ जाएँगी, गगनचुम्बी बहु-मंजिला इमारतें कल को बौनी
लगने लगेंगी, कृषि-क्षेत्र का उसका विराट-विकृत, रासायनिक उत्पादन नई-नई
जानलेवा बीमारियों की झड़ी लगाता जाएगा, आज के मानव-जीवन के सारे-के-सारे
साधन-संसाधन छोटे पड़ जाएँगे और विज्ञान की निरंकुश महत्वाकांक्षा प्रकृति की
विनाशक लीला को भस्मासुर की तरह समय-असमय और भी उकसाती रहेगी। तब सुरसामुखी
महामारियों द्वारा बड़े-बड़े मानव-समूह को चट करने में देर नहीं लगेगी। जैविक
अस्त्र-शस्त्रों के आविष्कार और द्वंद्व-प्रयोग से रक्तबीज की तरह एक-साथ अनेक
महामारियाँ प्रकट होंगी और अल्प समय में ही देश-देश से विशाल मानव-संख्या काल
के गाल में समा जाएगी।
आज भौतिकता की चकाचौंध में मनुष्य पथभ्रष्ट हो गया है। वह अपनी भौतिक
आवश्यकताओं की पूर्ति में इतना अंधा हो गया है कि अन्य प्राणियों जैसे
पशु-पक्षियों, जलचरों, जीव-जंतुओं के लिए महामारी-जैसा क्रूर व्यवहार स्वयं
करने लगा है। वह आस्वाद और उदर की आमिष बुभुक्षा में सनेत्र होते हुए भी
भोग्य-अभोग्य, खाद्य-अखाद्य में भेद नहीं कर पाता। वह तीव्र भौतिक उजाले में
कुशिक्षा, अप संस्कृति और अप संस्कार से घिर कर इतना दुस्साहसी हो गया है कि
आज महामारी-जैसी कुरूप घटना से भी अपनी प्रयोगशाला के आँगन में हठखेलियाँ कर
सकने में सक्षम है। उसकी तीव्र गति से बढ़ती जनसंख्या ने पृथ्वी का वातावरण
इतना प्रदूषित कर दिया है कि महामारियों सहित अनेक विकट समस्याएँ काल बनकर
मुहँ बाए खड़ी हैं।
पृथ्वी पर मनुष्य से अधिक हृदयवान-बौधिक प्राणी दूसरा नहीं है। अन्य प्राणियों
की अपेक्षा उसे त्याग और भोग के समन्वय का अधिकाधिक अनुपालन करना चाहिए। उसमें
पञ्च-तत्वों के संतुलन का विवेक अत्यावश्यक है। जल-थल-नभ के इतर प्राणियों की
रक्षा का दायित्व उसके सिवा और किसका है ? प्रकृति ने उसे सर्वाधिक बौद्धिक
क्षमता दी है, इसलिए नहीं कि जल-थल-नभ का सर्वांग-सर्वस्व उसी का हो जाए और
सारा-का-सारा जगत उसका भक्ष्य बन जाए। उसके लिए यही उचित है कि सहृदयता, चेतना
और सद्विवेक के साथ पृथ्वी पर, जीव-जगत में, जल-थल-नभ में सब के भाग, सब के अंश
की रक्षा करते हुए जीने का मार्ग प्रशस्त करे।
इसलिए जल-थल-नभ में जहाँ-जहाँ मनुष्य के कदम पड़े हैं या भविष्य में पड़ सकते
हैं, वहाँ-वहाँ के क्षेत्रफल का आकलन और पृथ्वी तथा उसके परिवृत्त की सहज
प्राकृतिक क्षमताओं के अनुसार संतुलित मानव-संख्या के निर्धारण तथा निर्धारित
जनसंख्या की सीमा में रहते हुए समस्त प्राणिजगत का पालन-पोषण एवं रक्षा का
दायित्व ही इस प्रकार की मानव-महामारियों से मुक्ति पाने का दूरगामी उपाय है।
वस्तुत: इस दायित्व का भार उठाए बिना आज के मनुष्य का कल्याण संभव नहीं है।
यह कार्य मनुष्य के भोग पर त्याग तथा उसके विज्ञान पर नैतिकता का अंकुश ही कर
सकता है।
दलितों के देववृक्ष
महात्मा गांधी का व्यक्तित्व वटवृक्ष के समान है। जैसे वटवृक्ष अपनी जड़ें धरती
की गहराइयों तक जमाकर अपनी अदम्य जिजीविषा का परिचय देता है, जैसे वटवृक्ष का
विशाल छत्र अत्यंत कठोर और शुष्क भूमि में पनपकर बिना खाद-पानी के गहराई से
पोषण तत्व खींचते हुए आँधी-तूफ़ान में भी खड़ा रहता है; वैसे ही भारतीय दासता से
मुक्ति तथा सत्य-अहिंसा की पुनार्प्रतिष्ठापना में महात्मा गांधी का अडिग
व्यक्तित्व करोड़ों-करोड़ जनमानस को अपनी विशाल छत्रछाया देता है।
पंडित नेहरू का महनीय व्यक्तित्व उनकी कोट में टंके गुलाब की तरह है। आलीशान
बगीचे में खिले उस गुलाब की तरह जो काँटों के बीच खिलता है, राजसी ठसक के साथ
इतराता है, आकर्षित करता है। जिसे खाद-पानी, सुरक्षा-बाड़-जैसे सभी वातावरण
सुलभ हैं और जो रंग-सुगंध का अद्वितीय स्वामी है। कुछ ऐसी ही छाप स्वतंत्रता
के पूर्व तथा पश्चात की भारत की राजनीतिक-सामाजिक परिस्थितियों में पंडित
नेहरू के व्यक्तित्व की है।
ऐसे अनेक उपमान भारत के स्वतंत्रता-संघर्ष तथा राष्ट्रीय चेतना के
नायक-नायिकाओं जैसे कि वीरांगना रानी लक्ष्मी बाई से लेकर नेताजी सुभाष चन्द्र
बोस आदि तक के व्यक्तित्व-रेखांकन के लिए दिए जा सकते हैं।
धीर स्वभाव के धनी लाल बहादुर शास्त्री को कदाचित 'शान्तिपुरुष' इसलिए कहा गया
है कि जैसे कमल-पादप कीचड़ में जन्म लेता है, जल में बढ़ता है, पर जल-कीचड़ दोनों
से निर्लिप्त होकर ऊपर खिलता है; वैसे ही वे भारतीय राजनीति के परिदृश्य में
सामाजिक मलिनता तथा धन-मान की भौतिकता से परे होकर आचरण करने का अनोखा पद-चिह्न
अंकित करते हैं।
किन्तु बाबा साहेब भीमराव अम्बेडकर के लिए मैदानी भूभागों में फूल-पौधे-जैसा
दूर-दूर तक कोई उपमान दिखाई नहीं देता। वस्तुत: अम्बेडकर का व्यक्तित्व कठोर,
पहाड़ी-पथरीली ज़मीन तोड़कर उगता है और उसे ऊपर की आबो-हवा भी कभी अनुकूल रूप में
नहीं मिलती। जैसे देवदारु, जिसे 'देववृक्ष' कहा गया है, पोषण के लिए पत्त्थर
तक को तोड़कर अपनी जड़ें गहराई तक ले जाने में समर्थ होता है तथा बर्फबारी तक को
झेलते हुए हरा और जीवंत बना रहता है; वैसे ही अम्बेडकर का व्यक्तित्व
दलित-पीड़ित-लुंठित-मर्दित मानवता के युग-युग से चले आ रहे अत्यंत कटु सत्य के
आधार को तोड़कर आकार ग्रहण करता है और अनवरत अवरोधों-विरोधों के उपरान्त भी
वंचित मानवता के लिए पूरे भारत में जागरण की हरी-भरी प्रभाती उदित कर देता है।
आधुनिक भारत की मनीषा में वे दलितों के देववृक्ष हैं।
आयुर्वेद में 'देवदार्वाद्यरिष्ट' का उल्लेख है। जिस प्रकार
'देवदार्वाद्यरिष्ट' कुष्ठ-जैसे असाध्य रोग का भी निवारण करता है, उसी प्रकार
अम्बेडकर का अप्रतिम व्यक्तित्व एवं कृतित्व हेय दृष्टि से देखे जाने वाले
पद-दलित, मर्माहत मानव-समाज के मान-अपमान, धर्म-अर्थ की अंतहीन पीड़ा का अंत
करने के लिए उसकी अंतरात्मा और अंतर्दृष्टि को लौकिक, नवीन, किन्तु दिव्य
विचारों का आसवारिष्ट पिलाने का अनोखा कार्य करता है।
बाबा साहेब के कालजयी पद-चिह्न चिरकाल तक पूजित रहेंगे।
धूल-मिट्टी से उठा एक सितारा
लगभग अर्धशती की उम्र तक संघर्ष करते रहने और उसके उपरान्त करीब बारह-तेरह
वर्षों तक कलंक-व्यूह में विरोधियों से घिरे, उनका चौतरफा सामना करते नरेंद्र
मोदी ने आज शाम भारत के प्रधान मंत्री पद की शपथ ले ली है। इसमें कोई संदेह
नहीं कि उन्हें जिजीविषा की पराकाष्ठा की सीमा तक विरोधियों को झेलना पड़ा।
उत्तरापेक्षियों को वर्षों तक सफाई देनी पड़ी। जाँच संबंधी संस्थाओं तथा
न्यायालयों, यहाँ तक कि उच्चतम न्यायालय की दृष्टि में अभ्युक्तता से मुक्त
होने के बाद भी उनके विरोधी उन्हें घेरते रहने से कभी बाज नहीं आए। पर आज देश
की जनता ने लगभग तीस वर्षों का कीर्तिमान तोड़ते हुए भारी बहुमत से देश की
बागडोर उनके हाथों में सौंप दी है।
नरेंद्र मोदी का बचपन एक औसत भारतीय की तरह कम बाधाग्रस्त नहीं रहा। बचपन में
उनकी माँ परिवार चलाने के लिए बड़े लोगों के घरों में काम-काज करती थीं। पिता
वडनगर रेलवे स्टेशन पर चाय की छोटी-सी दुकान चलाते थे और नरेंद्र ट्रेन आने पर
चाय बेचने के लिए पिता का हाथ बँटाते थे। बचपन में ही उनका विवाह कर दिया गया।
वे पढ़ने-लिखने की उम्र में उच्च से वंचित रहे और राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के
प्रचार-प्रसार में तन-मन से जुट गए। प्रचारक का कार्य करते हुए व्यक्तिगत
प्रयास से दूरस्थ शिक्षा के तहत दिल्ली विश्वविद्यालय से 1978 में स्नातक हए
और गुजरात विश्वविद्यालय से राजनीति विज्ञान में परास्नातक की परीक्षा 1983
में उत्तीर्ण की। कुछ विशेष करने की धुन और चितन-मनन में घर-गृहस्थी से दूर हो
जाना उनके कैशोर्य-युवा-काल की ऐसी विडम्बना रही कि वयस्क-प्राप्ति और पचास
वर्ष की दीर्घ अवस्था तक उन्हें कुछ भी बनने से बहुत दूर लेकर चली गई- "करने के
सपने बहुत हैं, बनने का सपना एक भी नहीं।"
आसमान के सितारे जन्मते ही प्रदर्शन के लिए देश-दुनिया के सामने खड़े कर दिए
जाते हैं। पर धूल-मिट्टी के सितारों की रास्ता नापने और धूल फाँकने में ही
तमाम उम्र बीत जाती है। नरेंद्र मोदी देश की इस दुरवस्था के अद्वितीय उदाहरण
हैं। वे हार न मानने वाले कठोर जीवट के ऐसे धनी व्यक्तित्व हैं कि देश-भ्रमण,
श्रमशीलता, आध्यात्मिक साधना, परिव्राजकता, सामाजिक-राजनीतिक उत्थान के उपक्रम
साधते-साधते अपनी उम्र का गुमनाम पचासा पार कर जाते है, किन्तु कुछ करने का
सपना नहीं छोड़ते। फलत: उनकी परिव्राजकता 7 अक्टूबर 2001 को गुजरात के
मुख्यमंत्री के रूप में तब्दील हो जाती है। किन्तु चार बार मुख्य मंत्री बनने
और देश-दुनिया के तीखे सवालों, कानूनी तेवरों, सख्त जाँचों, राजनीति के विषाक्त
वातावरण आदि के बीच दुर्द्धर्ष जिजीविषा के साथ यदि नहीं बदला तो उनका धैर्य,
संयम, नित्य का योग-प्राणायाम, शुद्ध शाकाहारी जीवन, रात्रि के 1 बजे से 5 बजे
तक लगभग चार घंटे के समय को छोड़कर लगभग 18-20 घंटे की अथक नैत्यिक कर्म-यात्रा
और राष्ट्र के प्रति समर्पण भावना।
लगभग तीन वर्षों बाद जब उन्होंने अपने से जुड़े 'टोपी-विवाद' का ज़वाब 'आप की
अदालत' में खुलकर दिया, तो न केवल धर्म-मज़हब का दिखावा करने वालों की कलई की
पर्त खुली, बल्कि उनके विचारों में 'सर्व धर्म समभाव' की अपेक्षित रूप-रेखा भी
प्रकट हुई- "मैं मेरी परम्पराओं को लेकर जीता हूँ, हर एक की परम्परा का सम्मान
करता हूँ।" इसे स्पष्ट रूप में इस प्रकार भी समझना जरूरी है कि देश-विदेश की
किसी भिन्न परम्परा के किसी व्यक्ति को उसकी परम्परा के विपरीत यदि यहाँ का
कोई नागरिक कंठी-माला-टीका-गंडा-तावीज़-कलावा-छाप-जनेऊ-सिन्दूर-बिंदी आदि में
से कुछ भी धारण करने को कहे और यदि वह व्यक्ति अपनी परम्परा के अनुसार स्वीकार
करने में अनिच्छा व्यक्त करे, तो आप क्या करेंगे ? यदि आप के दिखावे में वह
शामिल न हो, तो क्या उसे अपनी बात मनवाने के लिए दबाव डालेंगे ? न मानने पर
उसके भाई-चारे और सद्भाव पर प्रश्न-चिह्न खड़ा करेंगे ? यदि ऐसा है तो वैश्विक
ग्लोबल की इस सदी में आप का यह प्रयोग भारतीय चेतना और सद्भाव पर बहुत भारी
पड़ने वाला है। यदि यह प्रयोग आज के भारत के
हिन्दू-मुस्लिम-सिक्ख-ईसाई-जैन-बौद्ध-पारसी आदि परस्पर एक दूसरे को तौलने के
लिए करेंगे और अपने अंत:करण में नहीं झाँकेंगे तो सच्ची भारतीयता देश में
चरितार्थ नहीं होगी।
इधर के वर्षों में बलात्कार की घटनाओं ने देश को झकझोरा है। छोटी-छोटी
बच्चियाँ तक कुकर्मियों की बदनीयत का शिकार हुईं। ऐसी घटनाओं को भी देश के नेता
अपनी राजनीति की खेती का जरिया बनाने से बाज नहीं आए। इस पर मोदी का दर्द कुछ
इस प्रकार प्रकट होता है -" मान लीजिए आप ही वह बालिका हैं, जिस पर यह जुर्म
हुआ है या आप की बेटी है, जिस पर यह जुर्म हुआ है तो आप के मन में कैसे विचार
आएँगे।" सर्व धर्म समभाव पर उनका स्पष्ट मत है-" हमारे देश की सोच है, ईश्वर एक
है और उसे प्राप्त करने के रास्ते अलग-अलग हैं और सभी रास्ते ईश्वर के पास ले
जाते हैं।" आश्वासन की माँग पर उन्होंने साफ-साफ कहा है- "आप आश्वस्त रहिए, ये
जातिवाद का जहर, सम्प्रदाय का जनून भारत की प्रगति को रोकता है और ये हम नहीं
होने देंगे।"
इसलिए आज का दिन निश्चित ही मोदी-जैसे महानायक का दिन है। आशा-आशंकाओं के बीच
बढ़ते-तपते लौह व्यक्तित्व के राष्ट्रीय मंच पर प्रतिष्ठापित होने का दिन है।
आज जब भारतीय इतिहास के इस अनोखे दिन पर सांध्य वेला में नरेंद मोदी प्रधान
मंत्री पद की शपथ ले रहे थे, तो आकाश के अनेक सितारे मन-ही-मन न जाने क्या-क्या
सोचते रहे होंगे, क्योंकि धूल-मिट्टी में जन्मा, पला-बढ़ा और कर्मठता से ऊपर उठा
एक अनोखा सितारा जो उनके बीच जगमगा रहा था।
एक कर्मक्रांत परिव्राजक एवं आर्ष योद्धा
आज नरेंद्र मोदी ने दिन बीतते-बीतते प्रधान मंत्री पद की शपथ ले ली है। गरीब
परिवार में पैदा हुए मोदी की अब तक की यात्रा महज़ चायवाले बच्चे से लेकर
प्रधान मंत्री पद की यात्रा नहीं है। वह एक ऐसे राष्ट्र-तत्वान्वेशी की यात्रा
है, जो बचपन से कुछ बनने के नहीं, बल्कि कुछ करने के सपनों के साथ लम्बे समय से
संघर्ष करता आया है। अभिनेताओं से पूछ जाए कि यदि आप अभिनेता नहीं होते तो
क्या होते, तो वे बेलाग छूट पड़ते हैं कि अभिनेता नहीं होता तो क्रिकेटर होता और
यही प्रश्न यदि क्रिकेटर से पूछ जाए तो प्राय: उत्तर मिलता है कि क्रिकेटर
नहीं होता तो अभिनेता होता! इतना ही नहीं, भौतिकता के उत्कर्ष से पीड़ित आज दिन
दूने रात चौगुने गति से फलते-फूलते और उनके प्रभाव का लोहा मानते भारतीय समाज
में उच्च प्रशासकों, डॉक्टर, इंजीनियर आदि से यदि पूछा जाए तो कुल मिलाकर
प्राप्त उत्तर लगभग ऐसे ही रूप-स्वरूप में सामने आते हैं कि आई.ए.एस. नहीं
होता तो आई.पी.एस. होता, डॉक्टर नहीं होता तो इंजीनियर होता, इंजीनियर नहीं
होता तो डॉक्टर होता वगैरा-वगैरा!
नरेंद्र देश में आम तौर पर बहती इस धारा के विपरीत बड़ी-बड़ी डिग्रियाँ बटोरकर
कुछ बनने की राह से बचपन में ही भटक गए। तृषा थी सच्चे ज्ञान की, ईशरत्व-बोध
की, सेवा-सद्भावना की और शांति की। अक्सर ऐसी चेतना व्यक्ति को समाज से विमुख
कर देती है और वह संन्यास-मार्ग पर चल पड़ता है। 18 वर्षीय नरेंद्र का विवाह जब
13 वर्षीया कन्या जशोदाबेन से हुआ, तो बाल पत्नी को और पढ़ने, आगे की शिक्षा
प्राप्त करने का उपदेश देकर नरेंद्र घर छोड़कर संन्यास के मार्ग पर निकल पड़े।
पर विचित्र संयोग कि जो उपदेश उन्होंने पत्नी को दिया था, वही उपदेश उन्हें
वेलूर-मठ से मिला, क्योंकि वहाँ संन्यासी होने के लिए कम-से-कम ग्रेजुएट होने
का नियम था और वे उस समय ग्रेजुएट नहीं थे। फलत: नरेंद्र तीर्थाटन करते रहे,
कुछ और मठों-आश्रमों में संन्यास लेने का प्रयास किया, किन्तु असफल रहे और कुछ
समय हिमालय की अनमोल प्राकृतिक धवलता में साधनारत रहकर मन की एकाग्रता तथा
ह्रदय की निर्मलता के लिए व्यतीत किया।
कहने को नरेंद्र को किसी मठ-मंदिर या आश्रम ने दीक्षा नहीं दी, पर लगभग दो
वर्षों बाद जब वे हिमालय से होकर समाज की ओर लौटे, तो उनकी चेतना व्यक्तिगत
जीवन की सारी सीमाएँ तोड़ चुकी थी। उनकी दृष्टि का विस्तार हो चुका था। फिर
धीरे-धीरे वे समष्टि की समस्या-समाधान की पहेली बूझने में समर्पित होते गए।
पारिवारिक-दाम्पत्य जीवन से जो विरक्ति उन्हें पहले ही हो गई थी, वह जीवनपर्यंत
के लिए दृढ़ हो गई। आगे चलकर उनकी परिव्राजकता सामाजिक ताप में तपने लगी।
राजनीतिक उत्ताप ने भी उनके संन्यस्त जीवन को तपाना शुरू कर दिया। एक और
विचित्र संयोग कि जिस प्रकार उनके उपदेश को उनकी बाल पत्नी ने मन से माना और
पढ़ाई पूरी करके स्कूल-शिक्षिका बनीं, उसी प्रकार वेलूर-मठ के उपदेश को उन्होंने
मन से ग्रहण किया तथा उम्र बढ़ जाने पर भी राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के प्रचारक
का कार्य पूरे मनोयोग से करते हए व्यक्तिगत प्रयास से 1978 में स्नातक तथा
1983 में राजनीति विज्ञान में स्नातकोत्तर होकर अंतत: भारतीय राजनीति के
सर्वोच्च पद तक पहुँच गए।
उनके बाल मन पर राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ की छाप पहले से थी और चारों ओर भटकने
के उपरांत उन्होंने पुन: उसी की छत्रछाया में शरण ले ली। फिर वे वर्षों के
संघर्ष, अथक श्रम, समाज और देश के प्रति बढती सेवा-भावना तथा राष्ट्रीय स्वयं
सेवक संघ की शिक्षा, संस्कार एवं उत्प्रेरणा के चलते एक दिन राष्ट्रीय मंच पर
अवतरित हुए। उन्होंने 2001 में गुजरात में मुख्य मंत्री की कुर्सी क्या
सँभाली, वर्ष 2002 के गुजरात दंगों के कारण उनके राजनीतिक विरोधियों और सरकारी
मशीनरी ने मिलकर कठोर जाँच-पड़ताल का एक ऐसा सिलसिला शुरू किया कि वे एक तरह से
अयस्कार की भट्ठी में तपा-तपा कर उसकी लोहे की निहाई पर बराबर ठोंके-पीटे जाते
रहे। शंकाओं का पहाड़ खड़ा करने वाले अफवाहों के पंख पर सवारी कर-करके हार गए, पर
वे नहीं थके, नहीं हारे। विरोधियों द्वारा वर्षों तक बेरहमी से तपाए जाने और
ठोंके-पीटे जाते रहने का ही परिणाम है कि आज भातीय समय ने सजीव राष्ट्रपदा
लौह-मूर्ति के समान उन्हें प्रधान मंत्री-पद पर प्रतिष्ठापित कर दिया है।
आज 26 मई 2014 को सार्क देशों के राष्ट्राध्यक्षों-प्रतिनिधियों, अन्य पड़ोसी
देशों के नुमाइंदों, विभन्न राजनीतिक दलों के राष्ट्रीय नेताओं, देश के हर
क्षेत्र व विशिष्टता से जुड़े राष्ट्रीय स्तर की हस्तियों आदि की लगभग चार हज़ार
की जन संख्या का साक्ष्य लेकर नरेंद्र मोदी ने दूरदर्शिता का अभूतपूर्व परिचय
दिया है; देश को गौरवान्वित करता महनीय समारोह आयोजित किया है; अपने लम्बे
तपे-तपाए परिशुद्ध, परिव्राजक जीवन को निर्विकार भाव से राष्ट्र के नाम अर्पित
किया है और प्रधान मंत्री-जैसे कंटकाकीर्ण पद की शपथ आखिरकार ले ली है।
वे आज के भारत के एक कर्मक्रांत परिव्राजक एवं भारतीय राजनीति के आर्ष योद्धा
हैं, जिनका भविष्य की उत्तापन-भट्ठी में समय-असमय तपना अभी बहुत-कुछ शेष है
तथा उसकी भारी-भरकम निहाई और हथौड़ी भी उनकी कम प्रतीक्षा नहीं कर रही है।